Tuesday, November 8, 2011

कहीं ऐसा तो नहीं लगता अपना उत्तराखंड






माफ करना नित्यानंद स्वामीजी, भगतदा आप भी माफ करना,

गुस्ताखी माफ तिवाड़ी ज्यू, जनरल साहेब आप भी माफ करना,

उत्तराखंड को देखते ही देखते ग्यारह साल हो गए हैं,

राज्य में एक के बाद एक पांच मुख्यमंत्री भी बदल गए,

लेकिन क्या इससे पहाड़ कि तकदीर बदल पाई?

ये सवाल मैदानी शहरों में रहने वाली भीड़ का नहीं है,

बल्कि ये दर्द दूर शांत पहाड़ों में रहने वाले लोगो का है,

माना कि पहाड़ कि समस्याएँ भी पहाड़ सरीखी विशाल है,

लेकिन कुछ कर गुजरने के लिए ग्यारह साल भी कम नहीं हैं,

अब तो पहाड़ का रोने वाला जनकवि गिर्दा भी नहीं रहा,

उसके बाद कोई और है जो पहाड़ कि पुरजोर आवाज उठाएगा?

निशंक जी सुना है आप विधाता बनने कि कोशिशों में जुटे थे,

उत्तराखंड छोड़िए, खुद आपकी पार्टी का ये गवांरा नहीं हुआ,

खंडूरी जी, फिर आपका मुंह भी ताकना तो उत्तराखंडियो कि मज़बूरी है,

वैसे शहीदों कि सपने साकार होने में अभी बहुत ज्यादा देर नहीं हुई है,

पिछले ग्यारह सालों कि गलतिओं से सबक लिया जा सकता है,

लेकिन क्या हुक्मरान अपने स्वार्थो को छोड़कर ऐसा कर पाएंगे?

या आपदा के मलबे में ही अपने निकम्मेपन को मिलाने में जुट पाएंगे,

उत्तराखंडी जनमानस एक बार फिर पुकार रहा है,

सुधरने और सबक लेने का यह सही वक्त है,

वरना वो दिन दूर नहीं जब पहाड़ के कोने कोने में आवाज गूंजेगी,

नहीं चाहिए वोट के सौदागरों की भीड़ भरा उत्तराखंड,

हमें चाहिए सिर्फ शहीदों के सपनो का अपना उत्तराखंड..............



राहुल सिंह शेखावत



Monday, September 19, 2011

मुझे डर है उसे खोने का, क्योंकि मैं उसे प्यार करता हूँ...........

मुझे डर है उसे खोने का,

क्योंकि मैं उसे प्यार करता हूँ ,

अक्सर पूछता हूँ अपने आप से,

क्या वो भी डरती है मुझे खोने से,

ये सच है कि आज मैं अनिश्चितता से लड़ रहा हूँ,

उसे क्यों यकीन नहीं होता कि मैं डिगने वाला नहीं हूँ,

सिर्फ इसलिए कि उसे आज कहीं और निश्चितता नजर आती है,

वो क्यों नहीं समझती कि मुहब्बत उसका इम्तिहान ले रही है,

ये सच है कि वो जानती है कि कि मुझे शिकायत करने कि आदत नहीं है,

लेकिन क्यों भूल जाती है कि मुझे मुहब्बत के बिना जीने की भी आदत नहीं है,

वो खुशनसीब है क्योंकि उसे मुझे समझाने की कला आती है,

ये मेरी बदनसीबी है की मुझे उसकी अनिश्चितता बढनें का डर है,

मैं जानता हूँ कि मुझे दिल से निकालना उसके लिए मुमकिन नहीं है,

इसलिए मुझे डर है उसे खोने का ?



राहुल सिंह शेखावत

























Wednesday, September 7, 2011

उत्तराखंड को भी है एक अन्ना की जरूरत है



सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने 64 साल की आजादी के बाद जिन मुद्दों को उठाया है, कमोबेश वह सभी करीब 11 साल की उम्र वाले उत्तराखण्ड में मौजूद हैं। देश भर में चली भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के मद्देनजर उत्तर प्रदेश से अलग अपने उत्तराखण्ड के बड़े-बड़े सपने देखने वाले लोगों के दिल का दर्द भी जुबां पर आता दिखाई दिया। हालांकि, आमजन को नवसृजित और छोटा राज्य होने के कुछ स्वाभाविक फायदे जरूर मिल रहे हैं। लेकिन, पिछले एक दशक के दौरान इस राज्य में राजनैतिक अपरिपक्वता, अदूरदर्शी नेतृत्व के चलते हुए अनियोजित विकास से लोग अपने आप को ठगा महसूस कर रहे हैं।
उससे चिंताजनक बात ये है कि भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पहुंचा है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड में बड़े तबके को एक अन्ना सरीखे व्यक्तित्व की जरूरत महसूस हो रही है। भले ही पिछले दस सालों के दौरान भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार जन आकांक्षाओं पर पूरी तरह से खरी न उतर पाई हों लेकिन, जनता की कमाई को लूटकर उनके सपनों का खून करने में कोई पीछे नहीं रहा। देहरादून में अधिकारियों और बाबूओं का कमीशन लखनऊ के मुकाबलें कई गुना बढ़ गया है। उससे बड़ी बिडम्बना ये है कि उसके बाद भी काम हो जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में राज्य की पहली निर्वाचित सरकार बनी। उनके कार्यकाल के दौरान उत्तराखण्ड के मूलभूत विकास का ढ़ांचा बना। लेकिन, पटवारी और दरोगा भरती जैसे घोटाले से तिवारी सरकार के कार्यकाल पर भ्रष्टाचार के छींटे पड़े। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने तिवारी सरकार के कार्यकाल में 56 घोटाले होने के आरोप लगाए। अब ये बात और कि वह तीन रिटायर्ड जजों से जांच कराने के बाबजूद भी उन्हें उजागर करने में नाकाम रही है।
वैसे खुद भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। एन डी तिवारी के बाद फौजी जनरल रहे बी सी खण्डूरी ने राज्य की दूसरी निर्वाचित सरकार की बागडोर संभाली। भले ही उन पर सीधी उंगलियां न उठी हों लेकिन उनके खासमखास आईएएस अधिकारी प्रभात सांरगी के जलबे सभी जानते हैं। ऐसे कई मौके आए हैं जबकि उनके उत्तराधिकारी और वर्तमान मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। जल विदयुत परियोजनाओं का आबंटन, ऋषिकेश का चर्चित स्टर्डिया प्रकरण इसकी तस्दीक करने को काफी हैं। वैसे इन दोनों मामले के भ्रष्टाचार के खिलाफ नैनीताल हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर हुई। हाइकोर्ट के डंडे के डर से राज्य सरकार कई अपने फैसलों को वापस लेने पर मजबूर हुई जिससे निशंक सरकार ने जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता कम की है।
उत्तराखण्ड की परिकल्पना समग्र विकास, छोटी छोटी प्रशासनिक इकाइयों और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए की गई थी। लेकिन राज्य गठन को एक दशक बीत जाने के बाद इस दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई है। अपरिपक्व सियासतदाओं के बीच नौकरशाही का हावी और बेलगाम होना स्वाभाविक ही है। खुद राज्य के हाईकोर्ट ने अफसरों की कार्यशैली पर गंभीर टिप्पणीयां की हैं जिसका एक उदाहरण आईएएस अधिकारी डा उमाकांत पंवार हैं, जिनके आचरण को देखते हुए नैनीताल हाईकोर्ट ने उन्हें 6 महीने का प्रशिक्षण देने को कहा था। यह इकलौता मामला नहीं है। इसके अलावा कई अफसरों पर तल्ख टिप्पणीयां हुईं। वैसे हाईकोर्ट से अधिकारियों को अवमानना नोटिस मिलना तो अब आम बात हो गई है। भले ही लोगों की आकांक्षाएं पूरी न हो पा रही हो, लेकिन करीब ग्यारह साल की उम्र पूरे कर रहे उत्तराखण्ड राज्य में एक के बाद एक पांच मुख्यमंत्री जरूर बन गए हैं।
इससे आप खुद ही अंदाज लगा सकते हैं कि अपने सपनों के राज्य में जनता की कितनी सुनी जा रही होगी। और हां, राज्य गठन के बाद, भले ही भले ही कोई एक मंत्री अपने काम के लिए सुर्खियों में ना रहा हो। लेकिन कुछेक माननीय जैनी, नीलम, गीता खोलिया और रूचि क्षेत्री प्रकरण में जरूर चरचा में रहे हैं। ऐसा लगता है कि मानो इस राज्य के हुक्मरान ये भूल गए हैं कि उत्तराखण्ड की बुनियाद में 42 लोगों की शहादतें और कई महिलाओं की इज्जत दफन है। लब्बोलुबाब इतना भर है कि उत्तराखण्ड में भी देश में फैले भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से जुदा हालात नहीं है जिसके खिलाफ लोगों को खड़ा करने के लिए आजादी के छह दशक बाद अन्ना हजारे ने बीड़ा उठाया है। इसे देखकर उत्तराखण्ड भी शक्ल और सूरत संवारने के लिए एक अन्ना की बाट जोह रहा है।



राहुल सिंह शेखावत

Tuesday, June 21, 2011

कांग्रेस के अन्दर राहुल गान्धी की कांग्रेस



कांग्रेस के युवराज राहुल गान्धी 41 साल के हो गए हैं। 2004 में संसदीय राजनीति शुरू करने वाले राहुल 2007 में पार्टी के महासचिव पद पर काबिज हो गए थे। वैसे तो उनके लिए गान्धी होना ही काफी है लेकिन, 2009 के लोकसभा चुनाव राहुल गान्धी के लिए अहम साबित हुए। तमाम राजैनीतिक जानकारों ने उस चुनाव के परिणाम को अलग अलग रूप में परिभाषित किया। लेकिन, इस बात से किसी को नाइत्तेफाकी नहीं थी कि उस जनादेश ने राहुल गान्धी को देश का यूथ आईकन बना दिया था। नौजवान गान्धी ने कांग्रेस के लीडरशिप वाले यू पी ए गठबन्धन को लोकसभा में पूर्ण बहुमत के करीब पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई। उससे भी बड़ी बात ये रही कि कमोबेश दो दशकों के बाद कांग्रेस का लोकसभा में सदस्यों का आंकड़ा 206 तक पहुंचा।

उस वक्त कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में जबरदस्त वापसी से वह लोग अचिम्भत थे, जिन्हें राहुल गान्धी का उत्तर प्रदेश के गांवों में दलितों के घर में ठहरने में नौटंकी नज़र आती थी। आश्चर्य उनको भी था जिन्होंने राजस्थान के एक गांव में लोगों के साथ कन्धे पर मिट्टी का तसला ले जाते हुए राहुल को हल्के में लिया। अचम्भे में वह भी थे जिन्हें कलावती के दर्द की कहानी संसद में सुनाते हुए राहुल गान्धी में संवेदनशीलता की झलक नज़र नहीं आई। वैसे मखौल का विषय ब्रिटेन के एक मन्त्री को गांव में ले जाकर ठहराना भी बना था। दरअसल, अघिकांश राजनेता भी राहुल गान्धी की गम्भीरता पर ज्यादा गम्भीर नहीं थे।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री मायावती ही ऐसी अकेली सियासी हस्ती थी, जिसने कांग्रेस के इस नेता को गम्भीरता से लिया। मायावती ने काफी पहले ही राहुल गान्धी को टारगेट करना शुरू कर दिया था। दरअसल, वह सारी कवायद राहुल गान्धी की कांग्रेस के संगठन को मजबूत बनाने की शुरूआती मुहिम का हिस्सा था। 2004 में अमेठी से सांसद बन जाने के बाद उनको इस बात का बखूबी इल्म था कि पार्टी संगठन की मजबूती के बिना वह ताकतवर नहीं बन सकते। इसलिए राहुल ने अपना ध्यान संगठन पर केिन्द्रत कर दिया। इसी कड़ी में कांग्रेस महासचिव ने ड्राइंग रूम पालीटिक्स करने वाले घाघ नेताओं की जगह नौजवान कार्यकर्ताओं को पार्टी से जोड़कर संगठन खड़ा करने का जिम्मा उठाया। राहुल गान्धी के टारगेट में समाज का हरेक तबका था, कोई विशेष धर्म अथवा जाति नहीं। यूथ मास की ताकत को पहचानने में युवा गान्धी ने गलती नहीं की। अपने स्वर्गीय पिता राजीव गान्धी का अनुभव और स्टाईल उस सोच का मजबूत आधार था।

दरअसल, उस सारी कवायद के पीछे राहुलस डिस्कवरी आफ आरगेनाईजेशन एण्ड डेमोक्रेसी इनसाईड द कांग्रेस नामक थ्योरी छिपी थी। जिसे परवान चढ़ाने के लिए राहुल गान्धी ने लोकसभा चुनावों से पहले भारत भ्रमण भी किया। वह एक कोशिश थी संगठन की जमीनी हकीकत की टोह लेने और यह जानने की कि आखिर क्यों जनता कांग्रेस का हाथ पूर्ण रूप से पकड़ने में हिचकती है। युवाओं को राजनीति में लाने के लिए इन्टरव्यू कराए जा रहे हैं। अब कम से कम युवा कांग्रेस और एन एस यू आई में चुनाव के जरिए पदाधिकारी बनाने की शुरूआत हुई है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में अब कुछ पाक साफ हो गया है। लेकिन, पार्टी संगठन को मजबूत बनाने की एक नई शुरूआत जरूर हुई है। राहुल गान्धी की टीम से कांग्रेस में सेकेण्ड कम्पार्टमेन्ट तैयार हुआ है। उत्तर प्रदेश में कमोबेश दो दशकों के बाद कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी होती नज़र आ रही है। हालांकि बिहार में लोकसभा चुनावों के बाद एक बार फिर हालिया विधानसभा चुनावो में भी पार्टी की दुर्गती हुई, लेकिन कार्यकर्ताओं के मन में भविष्य के प्रति भरोसा तो जगा है।

लब्बोलुबाब इतना भर है कि सोनिया गान्धी की कांग्रेस के भीतर ही राहुल गान्धी की एक नई कांग्रेस की शक्ल नज़र आने लगी है। जिसका आधार पाजीटिव पालीटिक्स और सैक्युलर एवं नान सेक्युलर के साथ विकास केिन्द्रत राजनीति है। इस मुहिम में युवाओं की भागीदारी और जिम्मेदारी बढ़ाने का प्रयास है। इस अघोषित कांग्रेस में इिन्दरा गान्धी की मजबूती का अक्स नज़र आता है,तानाशाही का नहीं। उसमें राजीव गान्धी की सबको साथ लेकर चलने की नीति का प्रतिबिम्ब तो है,सञ्जय गान्धी की विवादास्पद और एकाधिकार वाली छवि से दूरी दिखती है।

एक सवाल राहुल गान्धी की नई कांग्रेस पर भी उठता है। वो यह कि क्यों नेहरू गान्धी खानदान का नेता ही कांग्रेस पार्टी पर राज करता हैर्षोर्षो पार्टी में एन्ट्री करने के बाद क्यों सीधे प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर उसका एकाधिकार बन जाता हैर्षोर्षो क्यों गान्धी परिवार का सदस्य उससे पहले किसी दूसरे विभाग में मन्त्री बनने की रेस में शामिल नहीं होतार्षोर्षो मुझे लगता है यह प्रश्न जब तक जिन्दा रहेगा, जब तक गान्धी परिवार का मुल्क की सियासत में दखल रहेगा। फिलहाल राहुल गान्धी इस यक्ष प्रश्न का उत्तर चुप रहकर अपने ही अन्दाज में देने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं। प्रधानमन्त्री और पार्टी सदस्यों की मन्त्रिमण्डल में शामिल होने के बजाय वह अभी संगठन में काम करने की इच्छा जता रहे हैं। क्या राहुल गान्धी ग्रामीण विकास मन्त्रालय, कृषि मन्त्रालय, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय अथवा किसी अन्य विभाग में काम करने का साहस दिखा सकते हैंर्षोर्षो अगर, वह ऐसा करते हैं तो विदेशी मूल के मुद्दे के बाद यह सवाल भी नेपथ्य में जा सकता है। बहरहाल, बेतहाशा उम्मीदों के भार तले राहुल गान्धी के लिए आगे का सफर और ज्यादा चुनौतीपूर्ण होगा।



राहुल सिंह शेखावत



Sunday, May 15, 2011

..तो अब अयोध्या विवाद के हल की उम्मीद करनी चाहिए






अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मिस्जद विवाद के सन्दर्भ में 30 सितम्बर 2010 का दिन एक नए अध्याय की शुरूआत था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बैंच के जस्टिस धरमवीर शर्मा, एस यू खान और सुधीर अग्रवाल ने इस प्रकरण में अपना फैसला सुनाया। तीन जजों की खण्डपीठ के फैसले में कहा गया कि अयोध्या में मौजूदा स्थान पर रामलला विराजमान रहेंगे। निर्मोही अखाड़े को राम चबूतरा और सीता रसोई मिलेगी। सुन्नी वक्फ बोर्ड को विवादित भूमि की एक तिहाई जमीन मिलेगी। लेकिन, अब देश की सबसे बड़ी अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट ने लखनउ बैंच के उस फैसले पर रोक लगा दी है।

दरअसल, हाईकोर्ट के उस निर्णय में आस्था की छाया पड़ी थी। उसी वक्त न्यायिक प्रक्रिया में आस्था के समावेश को लेकर कई पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने लखनउ बैंच के फैसले पर सवाल खड़े किए थे। जिसके पीछे तर्क ये था कि अदालत सबूतों के आधार पर निर्णय देती है, आस्था के आधार पर नहीं। हाईकोर्ट के उस निर्णय में सभी पक्षकारों के लिए कुछ न कुछ था। यही वजह थी कुछ बुद्विजीवियों ने उसे एक पंचायती फैसला कहने में भी संकोच नहीं किया था। किसी भी पक्ष के लिए जमीन का बण्टवारा स्वीकार करना व्यवहारिक तौर पर मुश्किल काम था। ऐसे में पक्षकारों का उच्चतम न्यायालय में उस फैसले को चुनौती देना स्वाभाविक था।

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस फैसले में आस्था के समावेश और भूमि का बण्टवारा करने की बात पर हैरानी जताई। चूंकि अयोध्या में विवाद भूमि के स्वामित्व का था, जिसको लेकर हाईकोर्ट के निर्णय में कोई स्पष्टता नहीं थी। जिसके चलते अयोध्या विवाद के पक्षकारों ने उस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति आफताब आलम एवं न्यायमूर्ति आर एस लोढ़ा की पीठ ने लखनउ बैंच के निर्णय पर रोक लगा दी है।

बेशक लखनउ बैंच के उस निर्णय में आस्था और पंचायती फरमान का अक्स नज़र आया था। लेकिन मुझे लगता है कि उसने एक पेचीदा मसले का हल निकलने का एक बेशकीमती पायदान जरूर मुहैया कराया। दरअसल, धर्म और आस्था से जुड़े अयोध्या मामले में वोटों की सियासत इस कदर घुसपैठ हो गई कि हर कोई इस संवेदनशील विवाद का समाधान निकलने को लेकर आशंकित हो चला था। हिन्दु और मुसलमान दोनों ही तबके कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे, जिसके लिए कमोबेश दोनों तरफ के लोग जिम्मेदार हैं। हिन्दू धर्म के ठेकेदार तो यहां तक कह चुके थे कि अगर फैसला उनकी आस्था के खिलाफ जाता है तो वह उसे मानने को बाध्य नहीं हैं।

इन बातों के बीच पिछले साल लखनउ बैंच का फैसला आने से पहले पूरे देशवासियों की सांसे थम सी गईं थी। लोगों के जहन में एक सवाल गूञ्ज रहा था कि अखिर फैसले पर देश में क्या प्रतिक्रिया होगी। ऐसा होना लाजमी था क्योंकि देशवासी 90 के दशक की कड़वी यादों का अभी भूला नहीं पाए थे। केन्द्र एवं उत्तर प्रदेश सरकार ने अतीत के कटु अनुभवों के मद्देनज़र अयोध्या और अन्य संवेदनशील स्थानों को छावनी में तब्दील करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन तीन जजों के निर्णय सुना देने के बाद लगा गोया अब हिन्दुस्तान 1992 के दौर से काफी आगे निकल चुका है।

न सिर्फ मुल्क में अमन चैन बरकरार रहा बल्कि अंग्रेजों की पूर्वाग्रही धारणा भी गलत साबित हो गई। गौरतलब है कि निर्मोही अखाड़ें ने अदालत से 1885.86 में मिस्जद की बगल में राम चबूतरे पर मन्दिर बनाने की इजाजत मांगी थी। लेकिन, अदालत ने अखाड़े के दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा होने पर वहां हर रोज विवाद होता रहेगा। लखनउ बैंच के फैसले में विवादित जमीन के बण्टवारे की बात से पक्षकारों को नाइत्तेफाकी थी। जिसके चलते उन्होंने उस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। लेकिन दोनों ही तबकों ने जो सञ्जीगदी दिखाई उसने अंग्रेजों की धारणा को गलत साबित कर दिया।

उससे बाद राम जन्मभूमि और बाबरी मिस्जद विवाद को बातचीत के जरिए हल करने की कोशिशें भी हुई। जिसकी कमान इस मसले के सबसे पुराने वादी हाशिम अंसारी ने सम्भाली। अंसारी ने खुद अपने वर्ग के कुछ लोगों के विरोध के बावजूद अखाड़े के साथ बातचीत की। भले ही उनके भागीरथ प्रयास का कोई परिणाम न निकला हो, लेकिन बातचीत करने का मनमानस बनने के रूप में एक सकारात्मक पहलू जरूर सामने आया। एक बात साफ है कि दोनों ही पक्ष उस अयोध्या विवाद का शान्तिपूर्ण समाधान चाहते हैं, जिसने दो बड़े तबको के बीच लकीर खींचकर, देश के सामाजिक ताने बाने को बड़ा नुकसान पहुंचाया।

कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी समेत अन्य राजनैतिक पार्टियों ने इस मुददे को हमेशा ही अपनी अपनी सियासत का औजार बनाया। जिसका खामियाजा सिर्फ दो तबको ने नहीं बल्कि पूरे देश ने भुगतना पड़ा। अब देश की सबसे बड़ी अदालत में इस संवेदनशील मसले पर सुनावाई शुरू हो गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि अन्तिम फैसला पुरानी कशीदगी को खत्म करके एक नए हिन्दुस्तान के उदय में सहायक बनेगा।



राहुल सिंह शेखावत







Saturday, April 16, 2011

अन्ना हजारे की मुहिम अंजाम तक पहुंच पाएगी ?


            गांधीवादी अन्ना हजारे देश में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के नए नायक बनकर उभरे हैं। उन्होंने 96 घंटों के आमरण अनशन में ही केन्द्र सरकार को बैकफुट पर ला खड़ा किया। सरकार ने लोकपाल विधेयक बनाने के लिए अन्ना की शर्तो को मान लिया है। केन्द्र ने वित्त मंत्री की अध्यक्षता वाली एक कमेटी गठित करके उसे नोटिफाई कर दिया है। जिसमें पांच सरकार और पांच ही सिविल सोसाएटी के नुमाइंदे शामिल हैं। यह कमेटी लोकपाल बिल के मसौदे का ब्लूप्रिंट तैयार करेगी। जिसे मनमोहन सिंह सरकार कैबिनेट के सामने रखने के बाद आगामी मानसून सत्र में बिल को लोकसभा में लाऐगी।
           यह मुहिम उस वक्त परवान चढ़ी जब पूरा देश विश्व कप क्रिकेट में मिली जीत की खुमारी में डूबा हुआ था। अन्ना ने दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन शुरू कर दिया। देखते ही देखते देश का हर तबका उनके पीछे खड़ा होता नजर आया। गौरतलब है कि पिछले 42 सालों के दौरान किसी भी सरकार ने लोकपाल बिल पास कराने की ईमानदार कोशिश नहीं की। लेकिन अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का शंखनाद करके देश में नए सिरे से उम्मीदें जगाई हैं। अगर संसद में कमेटी द्वारा तैयार किया गया बिल पास हो गया तो वो दिन दूर नहीं जब भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों पर कानून का शिकंजा कसता दिखेगा।
             सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे 21 वी शताब्दी के भारत में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छेड़ने वाले पहले व्यक्ति हैं। उनके पहले 1977 में जय प्रकाश नारायण और 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करके केन्द्र सरकारों को हिला चुके हैं। वीपी के 1987 में शुरू हुए आंदोलन को खड़ा करने में तो मीडिया की बड़ी भूमिका रही। लेकिन उनके पूर्ववर्ती आपातकाल के दौर में जेपी का आंदोलन बेहद महत्वपूर्ण था। उन्होंने इन्दिरा गांधी के खिलाफ पटना में आवाज उठाई और देखते ही देखते पूरा देश उनके पीछे खड़ा हो गया था। ठीक उसी तरह आज अन्ना के आंदोलन में जेपी की झलक नजर आती है।
            मौजूदा दौर में मीडिया आंदोलनों की पटकथा तैयार करता रहा है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं था। अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल की मांग उठाकर दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की। भारतीय मीडिया खुद-ब-खुद अन्ना की मुहिम के पीछे खड़ा हो गया। क्रिकेट का तमाशा, भूत प्रेत और नाग नागिन दिखाने में महारथ हासिल कर चुके इलेक्ट्रानिक मीडिया में अन्ना की हर बात और अंदाज ब्रेकिंग खबर था। जिसका नतीजा यह था कि देखते ही देखते देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत खड़ा हो गया। ऐसे में केन्द्र की यूपीए सरकार ने अन्ना हजारे के सुर में ही अपना सुर मिलाना बेहतर समझा।
              गौरतलब है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान देश एवं विभिन्न राज्यों में कई घोटाले उजागर हुए। मसलन, टूजी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी, कामनवेल्थ गेम्स, कर्नाटक में भूमि घोटाला, उत्तराखण्ड में स्टर्डिया भूमि मामला और जल विद्युत परियोजना आबंटन घोटाला वगैरह वगैरह। केन्द्र में रही किसी भी सरकार ने पिछले 42 सालों में लोकपाल बिल को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भरने में तत्परता दिखाई। एक के बाद एक सामने आ रहे घोटालों से त्रस्त देश के करोड़ों लोगों को उनमें एक नई उम्मीदें नजर आई।
              लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या जन लोकपाल बिल बन जाने मात्र से भ्रष्टाचार का सफाया हो जाऐगा? देश के कमोबेश डेढ़ दर्जन राज्यों में लोकायुक्त  नियुक्त हैं तो क्या उन राज्यों से भ्रष्टाचार का सफाया हो गया है? क्या लोकपाल बिल कमेटी मे शामिल हुए सिविल सोसाएटी के पांच देश के 121 करोड़ लोगों की वास्तविक नुमाइंदगी करते हैं? अन्ना हजारे की नीयत पर तो किसी को शक नहीं है, लेकिन क्या अन्य इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं? क्या शांति भूषण और प्रशांत भूषण यह दावा करने की स्थिति में हैं कि उन्होंने कभी भी बतौर वकील किसी गलत आदमी या मुद्दे की पैरवी नहीं की? मैं किसी पर भी सवालिया निशान नहीं खड़े कर रहा हूं। लेकिन समाज के विभिन्न तबकों की बीच यह सवाल उठ रहे हैं।
             बाबा रामदेव पहले ही लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी पर वंशवाद का अरोप लगा चुके हैं। ये बात और है कि बाद में उन्होंने अपने बयान को बदल दिया। गौरतलब है कि खुद रामदेव भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के अलम्बरदार रहे हैं। बाबा अपने योगा कैम्प में बड़े जोर-शोर से काले धन और भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते रहे हैं। अब ये बात और है कि वह उतनी गंभीरता नहीं दिखा पाए जितनी कि अन्ना हजारे ने दिखाई। बाबा रामदेव की गंभीरता का अंदाज इसी से हो जाता है कि वह कभी कहते हैं कि अलाने मंत्री ने मुझसे रिश्वत मांगी तो कभी फलाने ने। महत्वाकांक्षी रामदेव हवा में तीर छोड़ते हैं और फिर शांत हो जाते हैं।
             लेकिन अन्ना की हालिया मुहिम के मायने अलग हैं। उनका सार्वजानिक जीवन बेदाग और संघर्षशील रहा है। यही वजह है कि देश का जनमानस क्रिकेट की खुमारी से बाहर निकलकर उनके पीछे खड़ा हो गया। इस मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए व्यवस्था के सभी अंगों को सामूहिक तौर पर काम करना होगा। ये सोलह आने सच है कि सियासतदानों ने देश में भ्रष्टाचार के बीज डालकर उसे व्यवस्था में पनपाया है। लेकिन व्यवस्था में विधायिका की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लिहाजा उससे जुड़े लोगों को सिरे से चोर साबित करने बजाय उनको जनता के प्रति जबाबदेह और पारदर्शी बनने के लिए बाध्य किए जाने की जरूरत है। सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप करने और जन लोकपाल बिल बन जाने मात्र से ही भ्रष्टाचार का खात्मा होने वाला नहीं है।
           इसमें कोई शक नहीं है कि अन्ना हजारे ने महात्मा गांधी की सोच को साकार करने की दिशा में एक भागीरथ प्रयास किया है। अब व्यवस्था के सभी अंगों को भ्रष्टाचार मिटाने के लिए गंभीरता से ईमानदार प्रयास करने चाहिए। खासतौर पर अन्ना के पीछे खड़े लोगों को अब ज्यादा सूझबूझ का परिचय देना होगा। नेताओं को ही सिरे से चारे साबित करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, क्योंकि एनजीओ और उनसे जुड़े लोगों पर सवाल उठते रहे हैं। वैसे भी सिर्फ भाषणबाजी और नारेबाजी करके या फिर मोमबत्ती लेकर खड़े हो जाने भर से यह बीमारी खत्म होने वाली नहीं है। उम्मीद करनी चाहिए कि अन्ना हजारे की ताजा मुहिम अपने सही अंजाम तक पहुंचेगी।
 राहुल सिंह शेखावत

Thursday, February 10, 2011

वह विधवा थी या फिर सुहागिन



      मैं इस सवाल का जबाब बीती 18 जनवारी से ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। दरअसल, उस रोज मैं अपने एक पत्रकार साथी जगदीश जोशी के साथ नैनीताल शहर के डांठ पर खड़ा था। लोगों की भीड़ को देखकर मुझे कहानी समझ में आ गई थी। उसी बीच मेरी नज़रों के सामने से एक नहीं बल्कि दो अर्थियां एक साथ गुजर गई। मैनें वहां खड़े एक पुलिसकर्मी से पूछा कि एक साथ जाने वाले दो लोगों कौन थे
      उसने जबाब दिया कि डी जी सी साहब और उनकी पत्नी। दरअसल जिला शासकीय अधिवक्ता रवि साह की कार पिथौरागढ़ जिले में खाई में गिर गई थी। उस वक्त उनकी धर्मपत्नी मीना साह भी उनके साथ थी। रवि साह की मौत तो मौके पर ही हो गई थी, लेकिन  उनकी पत्नी की कुछ सांसे बाकी थी। उन्हें पिथौरागढ़ के अस्पताल में भरती जरूर कराया गया लेकिन जिन्दगी की जंग जीत नहीं पाई।
      राम नाम सत्य है कि गूंज के बीच देखते ही देखते अधिवक्ता दम्पत्ति की अन्तिम यात्रा आंखों के सामने से ओझल हो गई। इससे पहले कि मैं अपने साथ मौजूद पत्रकार साथी से कुछ कहता। उन्होंने कहा कि यार शेखावत जी दोनों खुशनसीब थें। भगवान ने गजब का न्याय किया है। चन्द दिनों पहले ही दोनों अपनी बिटियां की शादी करके पारिवारिक जिम्मेदारी से मुक्त हुए थे। और अब  पारिवारिक जिम्मेदारी से भी मुक्त हुए थे।
     लेकिन, मैंने अनायास जगदीश जोशी जी से कहा। महाराज, खुशनसीब किसे कह रहे हो। जोशी जी बोले कि दोनों ही एक साथ भगवान को प्यारे हुए हैं। मैंने उनसे फिर एक सवाल किया। क्या रवि साह जी की पित्न भी उनके जैसी भाग्यवान हैं। जोशी जी ने पहले तो मेरे चौखटे को शान्त होकर गौर से देखा और फिर हल्का सा मुस्कराए।
      मैंने कहा कि आपका समाज तो पति की मौत पहले होने वाली महिला को विधवा कहता है। भले ही साह दम्पत्ति एक साथ कार दुघZटना का शिकार हुए। लेकिन पत्नी ने तो बाद में दम तोड़ा था। आप मीना साह को किस श्रेणी में रखोगे। मेरे इतना कहने पर जोशी जी ने कहा कि यार भगवान की माया अपरम्पार है। लेकिन राहुल भाई तुम्हारी दलील एकदम जायज है। इतनी बात के बाद हम दोनों अपने अपने काम पर चल दिए।
     लेकिन, मुझे सवाल का सन्तोषजनक जबाब नहीं मिल पाया था। लिहाजा मुझे रूक रूक कर वह बात याद आ ही जाती हैं। शायद यही वजह है कि उस घटना को काफी दिन बीत जाने के बाद मैं अपने मन की व्यथा लिखने को मजबूर हूं। मैं अपने चेतनाकाल से ही कुछ मामलों में अतिवादी रहा हूं। शायद यही वजह है कि मुझे विधवा शब्द से हमेशा ही चिढ़ रही है। फिर भी, ऐसे लम्हें का चश्मदीद बनूंगा, शायद ही मैंने कभी सोचा होगा।
      मुझे मृतक दम्पत्ति की बिरादरी के एक वयक्ति ने बताया कि मीना साह मरने से पहले होश में आई थी। उस दौरान उन्होंने सबसे पहले अपने पति की तबियत के बारे में पूछा था। हालांकि उनको असलियत नहीं बताई गई थी। यह भारतीय महिला के व्यक्तित्व का एक खूबसूरत पहलू है। खुद मर रही होती है लेकिन पति की हालत पूछने की हिम्मत जुटा ही लेती है। फिर भी ये किसी बिडम्बना से कम नहीं है कि हमारे समाज में एक महिला का विधवा होना एक विधुर पुरूष के मुकाबले कहीं ज्यादा कष्टकारी है।
      लेकिन धर्म और परम्पराओं का लबादा ओढ़ने वाले ठेकेदारों ने रिश्तों ही नहीं बल्कि दुख का भी वर्गीकरण करके तथाकथित आधुनिक समाज पर भी थोप रखा है। मैं एक बात बिल्कुल साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा मकसद मृतक दम्पत्ति के परिजनों की भावनाओं का चोट पहुंचाना नहीं है। साथ ही मुझे नहीं मालूम कि मीना साह को उनके परिजनों ने क्या मानकर विदा किया। मेरा मानना है कि पति और पत्नी में अटूट प्यार था। तभी दोनों जीवन की अन्तिम यात्रा में एक साथ विदा हुए।
      यह मेरा वयक्तिगत विचार है। इससे हर आदमी और खासतौर पर कर्मकाण्डी लोग सहमत हों जरूरी नहीं है। मैं पूर्ण रूप से नास्तिक तो नहीं लेकिन बहुत ज्यादा आस्तिक भी कभी नहीं रहा हूं। भगवान ने साह दम्पत्ति को एक साथ सड़क दुघZटना का शिकार बनाकर साथ ही साथ दोनों को वापस बुला लिया। बस दोनों की सांसे निकलने में बहुत कम अन्तर था। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या पति पत्नी की सांसे निकलने के बीच का अन्तर विधवा जैसे दकियानूसी शब्द को त्यागने का मौका नहीं देता है।
                                                        
                                         राहुल सिंह शेखावत
    
    

Wednesday, January 19, 2011

और कितना बेचारा बनेगा उत्तराखण्ड क्रान्ति दल

       देश के विभिन्न राज्यों में पिछले दो दशको के दौरान क्षेत्रीय दल भारतीय राजनीति की प्रमुख धुरी रहे हैं। लेकिन, उत्तराखण्ड इसका बहुत बड़ा अपवाद है। यहां इकलौते क्षेत्रीय उत्तराखण्ड क्रान्ति दल की हालत देखकर अस्पताल के आई सी यू में पड़े किसी एक मरीज की याद आ जाती है। सूबे की सियासत में अपना वजूद बचाने को संघर्ष करने में इस दल के संगठन और कुल जमा तीन विधायकों में एक राय नहीं है। यूकेडी ने राज्य की भाजपा सरकार से अपना समर्थन तो वापस ले लिया है। लेकिन, कैबिनेट मन्त्री दिवाकर भटट और अन्य विधायक खुले आम कह रहें हैं कि वह सरकार के साथ हैं। आलम ये है कि दल का नेतृत्व और विधायक आमने सामने आ खड़े हुए हैं। जिससे उत्तराखण्ड क्रान्ति दल में एक बार फिर विभाजन का खतरा पैदा हो गया है।
         बीते 27 दिसम्बर को दल के केिन्द्रय अध्यक्ष ति्रवेन्द्र पंवार ने कुछ पदाधिकारियों के साथ राज्यपाल को राज्य सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि यूकेडी साल 2010 के बीतने से पहले ही उत्तराखण्ड की निशंक सरकार से अलग हो जाएगी। गौरतलब है कि 2007 में  सरकार में शामिल होने के समय से ही दल के जमीनी कार्यकर्ताओं का बड़ा तबका इसके खिलाफ आवाज मुखर करता रहा है। यूकेडी के अलम्बरदारों ने कई बार ऐसा करने का दम भरा लेकिन हर बार गीदड़ भवकी से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ।
         इस बार पार्टी नेतृत्व ने मजबूत इच्छाशक्ति तो दिखाई है किन्तू विधायक सरकार का साथ छोडने को तैयार ही नहीं हैं। दिवाकर भट्ट के खेमे का कहना है कि विधानमण्डल दल के नेता और विधायकों विश्वास में लिए बिना अलोकतान्ति्रक तरीके से राज्यपाल को समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंपी गई। दल में तनातनी का आलम ये है कि पहले तो केिन्द्रय अध्यक्ष ने दिवाकर भट्ट को आजीवन पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जिसके जबाब में काबिना मन्त्री दिवाकर के धड़े ने दल के मुखिया ति्रवेन्द्र पंवार को निलंबत करके एक समानान्तर कार्यकारी अध्यक्ष की घोषणा कर दी है।
         ये हास्यास्पद स्थिति उस उत्तराखण्ड का्रन्ति दल की है जिसकी स्थापना 25 जुलाई 1979 को मसूरी में हुई। पार्टी का उद्देश्य उत्तर प्रदेश से अलग पर्वतीय राज्य के सपने को साकार करना था। उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए यूकेडी ने अपने वजूद तक को गिरवी रखने में परहेज नहीं किया। इस दल ने राज्य नहीं तो चुनाव नहीं का नारा देकर 1994 में विधानसभा चुनावों का बहिष्कार कर दिया था। उक्रान्द ने राज्य आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 9 नबम्बर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर, उत्तराखण्ड  देश के नक्शे में एक नए राज्य के रूप में उभरा। राज्य का गठन होना जरूर यूकेडी के लिए गर्व का विषय हो सकता है, लेकिन अपने सपनों के उत्तराखण्ड की सियासत में ही इस दल को आज तक सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया।
       राज्य विधान सभा के 2002 में हुए पहले आम चुनावों में यूकेडी को सिर्फ चार सीटें प्राप्त हुई। वहीं, 2007 के दूसरे विधान सभा चुनावों में उसे और एक सीट कम यानि तीन पर सन्तोष करना पड़ा। दल के शीर्ष नेता काशी सिंह ऐरी और नारायण सिंह जन्तवाल को हार का स्वाद चखना पड़ा। संस्थापक अध्यक्ष डी डी पन्त के बाद जसवन्त सिंह विष्ट, काशी सिंह ऐरी, दिवाकर भटट, ति्रवेन्द्र पंवार, विपिन चन्द्र ति्रपाठी, बी डी रतूडी और नारायण सिंह जन्तवाल दल की बागडोर सम्भाल चुके हैं। यानि उक्रान्द के तरकश के लगभग सभी तीर आजमाये जा चुके हैं। लेकिन 31 साल की उम्र पूरी करने के बाद भी यह क्षेत्रीय दल अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में नही है।
       उत्तर प्रदेश के जमाने में जसवन्त सिंह विष्ट रानीखेत से चुनाव जीतकर दल के पहले विधायक बने। उनके बाद काशी सिंह ऐरी तीन बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंचे। ऐरी ने उत्तराखण्ड के पहले विधानसभा चुनावों में भी जीत हासिल की। उत्तप्रदेश के जमाने में तो उसके पहाड़ी क्षेत्र में यूकेडी की अहमियत समझी जाती थी। लेकिन, उत्तराखण्ड में तो इस दल की प्रासंगिकता पर रही सवाल उठने लगे हैं। गौरतलब है कि राज्य बनने के बाद, सत्ता लगातार भाजपा और कांग्रेस के हाथों में रही हैं। इन परिस्थितियों के मददेनज़र यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि राज्य के इकलौते क्षेत्रीय दल की इतनी दयनीय हालत क्यों हैर्षोर्षो
       उत्तराखण्ड क्रान्ति दल 2007 ने विधान सभा चुनावों के बाद भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को न सिर्फ समर्थन दिया, बल्कि उसमें शामिल हो गया। इस आत्मघाती कदम से दल की विश्वसनीयता पर सवाल उठे। ऐसा करने वाले में बाहरी नहीं, बल्कि दल के लोगों की तादाद ज्यादा है। जमीनी कार्यकर्ताओं ने शुरू से ही राज्य सरकार से समर्थन वापस लेने की मांग शुरू कर दी थी। लेकिन फील्डमार्शल के उपनाम से मशहूर दिवाकर भट्ट का धड़ा हमेशा उसके बीच में दीवार बना रहा।
       गौरतलब हैै कि दिवाकर राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में काबिना मन्त्री हैं सो दल में उनकी तूती बोलना स्वाभाविक ही है। 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान यूकेडी में बड़ा अजीबोगरीब माहौल देखने को मिला। दल ने राज्य सरकार में रहते हुए उत्तराखण्ड की पांचों लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा। पार्टी के शूरमाओं ने उसे फ्रेन्डली फाईट का नाम दिया। काशी सिंह ऐरी और बी डी रतूड़ी ने अपने कार्यकर्ताओं को बेबकूफ बनाने के लिए राज्य सरकार में मिले अपने अपने दायित्वों से इस्तीफा दिया। फिर लोकसभा चुनावों के बीत जाने के बात बेशर्मी के साथ फिर पदभर सम्भाल लिया। लेकिन यह उम्मीद भी नहीं थी कि 2012 के भावी विधानसभा चुनावों के कमोबेश एक साल पहले दिवाकर भट्ट समर्थन वापसी के मुददे पर  आस्तीन चढ़ाकर पार्टी संगठन के सामने ताल ही ठोंक देंगे।
      हालांकि दिवाकर भटट लंबे समय तक चले राज्य आन्दोलन से तपकर निकले हैं। उन्होंने सड़कों पर अपने दल को ला खड़ा करने में बड़ा योगदान दिया है। फिर भी उनका अतिवादी होना किसी से छिपा नहीं है। अतीत में ऐसे मौके आए हैं जब भटट पार्टी लाईन खिलाफ जाते दिखाई दिए। श्रीयन्त टापू में धरना देना उसका उदाहरण है। अन्य कारणों के अलावा, अतिवादी रवैया 1995 में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल में विभाजन का एक कारण बना। आज एक बार फिर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल में ठीक वैसी ही परिस्थितियां बनती नज़र आ रही हैं।
        वैसे और भी कई ऐसे निर्णय हैं जिन्होंने उक्रान्द के ताबूत में कील ठोंकने का काम किया। मसलन 1994 में जब राज्य आन्दोलन चरम पर था, तो यूकेडी राष्ट्रीय दलों की कुटिल चालों का शिकार हो गया। तत्कालीन नेतृत्व इतना अदूरदशीZ था कि उसने अपने झण्डे को साईड में रखकर राज्य आन्दोलन की अगुवाई करना मंजूर कर लिया। कांग्रेस और भाजपा को इल्म था कि यूकेडी के नेतृत्व में आन्दोलन में शरीक होने से उनके हिस्से में ज्यादा कुछ नहीं आने वाला। लिहाजा, संयुक्त संघर्ष समिति की अगुवाई में राज्य आन्दोलन हुआ। बेचारा उक्रान्द यह कह पाने का साहस नहीं जुटा पाया कि हमारी नींव ही उत्तराखण्ड राज्य के लिए पड़ी है। अगर आप राज्य बनाने को लेकर गम्भीर हैं तो हमारे पीछे खड़े हो जाईए। नतीजतन राज्य गठन के बाद से लगातार भाजपा और कांग्रेस बारी बारी से सत्ता सुख भोग रही हैं। लेकिन यूकेडी के पास बेचारा बनके उनका मुंह ताकने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
       बहरहाल, यह सब अतीत की वो गलतियां हैं जिन्होंने अपने सपनों के ही उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय दल यूकेडी को बेचारा बनाकर रख दिया। लेकिन, गजब ये है कि इस दल ने अपनी गलतियां से सबक लेना तो दूर उनको कभी गम्भीरता से लेने की जहमत नहीं उठाई। यूकेडी पिछले चार सालों से सत्ता की चाशनी तो चाट रहा है, लेकिन फण्ड और संसाधनों का आज भी अता पता नहीं है। उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखण्ड बनने के बाद यह दल लगातार अन्दरूनी सिर फुटव्वल के लिए ही ज्यादा सुर्खियों में रहा है। हालांकि पहाड़ का एक तबका आज भी दिल में यूकेडी के लिए साफ्टकार्नर रखता है। लेकिन दल अपने आपको एक विकल्प के तौर पर रखने में नाकाम रहा।
        उत्तराखण्ड के इस इकलौते क्षेत्रीय दल की दिक्कत यह है कि आज उसके पास सर्वमान्य और सार्वभौमिक पहचान रखने वाला नेतृत्वकर्ता नहीं है। शीर्ष नेता काशी सिंह ऐरी में कहीं वह क्षमता है। लेकिन पहले वह पिछला विधानसभा चुनाव हारे और फिर शह  मात के खेल में काबिना मन्त्री दिवाकर भट्ट के आगे कमजोर साबित हुए। कमोबेश एक साल बाद 2012 में उत्राखण्ड में विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन उसकी तैयारियों में जुट जाने की बजाय यूकेडी विभाजन की दहलीज पर खड़ा है। इन हालातों में शायद ही किसी को ये मुगालता होगा कि आगामी चुनावों में यह दल सत्ता बनाने या बचाने की भूमिका में नज़र आऐगा। लेकिन यह उत्सुकता सभी को रहेगी कि सूबे की सियासत मेंउत्तराखण्ड क्रान्ति दल अपनी प्रांसगिकता साबित कर पाऐगा या फिर हमेशा के लिए बेचारा बनकर रह जाऐगा।

                                                                                                 राहुल सिंह शेखावत