Thursday, February 9, 2012

मन में राम और मोबाईल में छोरी..........






लगता है इन दिनों भारतीय जनता पार्टी के दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं। खासतौर पर कर्नाटक राज्य उसके लिए लगातार फजीहत का सबब बना हुआ है। भाजपा नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के घोटालों में घिरने से हुई बदनामी से अभी पीछा छुड़ा भी नहीं पाया था, अब एक फिर नया मामला भारी शर्मींदगी का कारण बन रहा है। दरअसल, कर्नाटक में भाजपा सरकार के तीन मंत्री मोबाईल में अश्लील क्लििपिंग देखते पकड़े गए हैं। यह मामला ऐसे वक्त सामने आया है जबकि उत्तरप्रदेश का चुनावी माहौल अपने शबाब पर है।

कर्नाटक में विधानसभा का सत्र के दौरान तीन मंत्रीगण मोबाईल में पोर्न विडियो देखने में मशगूल थे। इनमें सहकारिता मंत्री लक्ष्मण साबदी, विज्ञान एवं प्रौदयोगिकी मंत्री कृष्णा पालेमर और महिला एवं बाल विकास मंत्री सी सी पाटिल शामिल हैं। चूंकि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। लिहाजा भाजपा हाईकमान ने कथित तौर पर अश्लील क्लििपिंग देखने वाले मंत्रियों के इस्तीफे मांगने में देर नहीं की।

आप जरा इन महानुभाव मंत्रियों का जबर्दस्त काम्बिनेशन देखिए। एक सहकारिता दूसरा विज्ञान एवं प्रौदयोगिकी और तीसरा महिला एवं बाल विकास मंत्री। ये तीनों महानुभाव सामूहिक रूप से विज्ञान की सौगात मोबाईल पर महिला की अश्लील क्लििपिंग का लुत्फ उठा रहे थे। खास बात ये है कि यह तब हुआ जबकि कर्नाटक विधानसभा का सत्र चल रहा था। हो सकताा है कि इन साहेबानों ने सोचा हो कि बेतमलब की बहस में सर खपाने की बजाय मन को बहला लिया जाए।

वैसे क्या अच्छा नहीं होता कि ये मंत्रीगण रामायण की कोई क्लििपिंग देख रहे होते। अगर ये विधानसभा कार्यवाही के दौरान पकड़ लिए जाते और खबर बन भी जाती। तो शायद भाजपा के लिए थोड़ा राहत की बात हो सकती थी। पार्टी चुनावों में कह सकती थी कि देखों हमारे मंत्रियों की मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम में कितनी आस्था है।

गौरतलब है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के चुनावों के मद्देनजर अपने घोषणा पत्र में फिर अयोध्या में राम मंदिर बनाने की बात कही है। पार्टी 90 के दशक से लगातार राम का नाम बेचती आ रही है। लेकिन लगता है कि उसके नुमांइदे राम का नाम सुनते और सुनाते उब चुके हैं। तभी उन्होंने फुर्सत के लम्हों में अपने मोबाईल में पोर्न विडियों देखना ज्यादा बेहतर समझा होगा। खैर ये हर आम आदमी की तरह वे भी अपनी इच्छा पूरी करने के लिए स्वतंत्र हैं।

वैसे अश्लील क्लििपिंग देखना इतनी बड़ी बात नहीं है कि उसका बतंगड़ बना दिया जाए। बात सिर्फ श्री राम का नाम भुनाते वाली भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों के मर्यादाहीन व्यवहार की है। जो लोकतंत्र के मंदिर रूपी विधानसभा के अनुष्ठान यानि सत्र के दौरान पोर्न विडियों देखने में मशगूल नजर आए। अगर वो इस नेक काम को अपने घर, बेडरूम या फिर कहीं और करते तो उसमें किसी को आपत्ति नहीं होती। हम बचपन से ही बड़ो से मन में राम बगल में छुरी नामक कहावत सुनते आए हैं। लेकिन कर्नाटक में भाजपा के इन तीन शूरमाओं ने एक नई कहावत को जन्म दे दिया है, वो है मन में राम और मोबाईल में छोरी।

खैर अब छोडो़ इस बात को मंत्रियों को जो अच्छा लगा उन्होंने वो किया। मुझे आशंका है कि कहीं अन्ना हजारे की टीम इस बात को अपनी डायरी में नोट न कर लिया हो। कोई ताज्जूब नहीं है कि टीम अन्ना भविष्य में अपने मंच से नेताओं पर एक नयी फब्ती कसती नजर आए। ऐसे नेताओं की सर्वोच्चता क्यों स्वीकार की जाए, जो विधानसभा में बैठकर मोबाईल में अश्लील क्लििपिंग देखते हो?



राहुल सिंह शेखावत







Friday, February 3, 2012

किसकी बनेगी सरकार उत्तराखण्ड में?






उत्तराखण्ड के मतदाताओं ने तीसरे विधानसभा चुनावों में 788 उम्मीदवारों की तकदीर का फैसला 30 जनवरी को ईवीएम में कैद कर दिया। उत्तराखण्ड में 70 विधानसभा सीटों पर मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच है। बहुजन समाज पार्टी मुख्य रूप से मैदानी क्षेत्रों में त्रिकोणीय संघर्ष में है। जहां भाजपा के समक्ष अपनी सरकार बचाने की चुनौती है, वहीं कांग्रेस सत्ता में वापसी की जद्दोजहद में जुटी है। सूबे की इकलौती रिजनल पार्टी उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के सामने इस बार अपना वजूद बचाने का बड़ा संकट है। भाजपा और कांग्रेस के दर्जनों नेताओं ने टिकिट न मिलने या फिर कटने पर भारी बगाबत कर दी। फलस्वरूप दर्जनों बागी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में कूद पड़े। जिससे इन दोनों ही दलों के सूत्रधारों की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। इस बगाबत के बीच बहुजन समाज पार्टी का हाथी पहाड़ पर चढ़ाई करने के मंसूबे पाले हुए है।

वैसे उत्तराखण्ड का अतीत इस बात का गवाह है कि अभी तक यहां कोई भी सत्ताधारी पार्टी चुनाव जीतकर दुबारा सरकार नहीं बना पाई। 9 नबम्बर 2000 को उत्तराखण्ड गठन के वक्त भाजपा के नेतृत्व अंतरिम सरकार बनी थी। जिसके बाद साल 2002 में राज्य में पहले आम चुनाव हुए। जिसमें कांग्रेस को पहली निर्वाचित सरकार बनाने का मौका मिला था। नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव भी सत्ता परिवर्तन के गवाह बने थे। जनता ने कांग्रेस को हराकर भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया। अब उत्तराखण्ड में तीसरा आम चुनाव हो रहा है। भाजपा रिटायर्ड मेजर जनरल बी सी खण्डूरी के नेतृत्व में चुनावी मैदान में कुदी है। उनके सामने न सिर्फ अपनी सरकार बचाने की चुनौती है, बल्कि राज्य में अब तक चले आ रहे पालीटिकल ट्रेंड को गलत साबित करने की चुनौती है।

खण्डूरी के लिए यह कारनामा कर दिखाना इतना आसान नहीं होगा। उनकी पूर्ववर्ती रमेश पोखरियाल निशंक के नेतृत्व वाली सरकार पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगे। खास तौर पर जल विद्युत परियोजना आंबटन घोटाला और रिषिकेश का चर्चित स्टर्डिया भूमि घोटाला। ये दोनों बहुचर्चित मामले नैनीताल हाईकोर्ट की दहलीज में पहुंचे। सरकार ने कोर्ट के डंडे से बचने के लिए इनसे जुड़े कई फैसलों को वापस लेकर अपनी जान छुड़ाई। इसके अलावा कैग की रिपोर्ट में कुंभ कार्यो में करोड़ों के घोटाले का जिक्र हुआ। भाजपा हाईकमान को सरकार की बिगड़ी छवि के मद्देनजर चुनावों से ठीक पहले तीसरी बार नेतृत्व परिवर्तन करना पड़ा। निशंक को हटाकर उन बी सी खण्डूरी को दुबारा सूबे की बागडोर सौंपी गई, जिनको भारी असंतोष और 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था।

इस घटनाचक्र के परिदृश्य में भाजपा भारी गुटबाजी के बीच चुनावी मैदान में कूदी है। पार्टी में एक खेमा खण्डूरी और भगत सिंह कोश्यारी का है, तो दूसरा खेमा पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियल निशंक का। इस बार टिकिट वितरण में अंदरूणी गुटबंदी का साफ असर दिखाई दिया। भाजपा हाईकमान ने दो कैबिनेट मंत्रियों समेत 8 मौजूदा विधायकों के टिकिट काटे। जिनमें अधिकांश निशंक के करीबी या समर्थक माने जाते हैं। अपना पत्ता साफ होने के बाद सीटिंग एम एल ए या तो चुनाव प्रचार से दूर हैं या फिर बागी होकर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। जिनमें पूर्व कैबिनेट मंत्री केदार सिंह फोनिया भी शामिल हैं। मौजूदा कैबिनेट मंत्री गोबिंद सिंह बिष्ट और खजान दास भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को सार्वजानिक रूप से खरी खोटी सुनाकर न्यूट्रल हो गए हैं। भाजपा में असंतोष का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 22 बागियों को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखाना पड़ा।

सूबे की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सत्तावापसी के ख्वाब के साथ चुनाव मैदान में कूदी है। वैसे इस बार टिकिट वितरण में केन्द्रिय संसदीय राज्य मंत्री हरीश रावत की खूब चली। उनके अलावा टिहरी के सांसद विजय बहुगुणा भी अप्रत्याशित रूप से फायदे में रहे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल और पौड़ी सांसद सतपाल महाराज टिकट दिलाने की रेस में पिछड़े दिखाई दिए। गौरतलब है कि सांसद महाराज और यशपाल आर्या में करीबी रही है। ऐसा लगता है कि महाराज और आर्या को हल्का करने के लिए हरीश रावत और विजय बहुगुणा में म्यूचूअल अंडरस्टैंडिंग बन गई थी। नेता विपक्ष हरक सिंह रावत को आश्चर्यजनक रूप से रूद्रप्रयाग सीट पर, उनके सगे साड़ू एवं कैबिनेट मंत्री मातबर सिंह कंडारी के सामने चुनावी मैदान में उतारा गया। दरअसल, कांग्रेस के ये सभी क्षत्रप मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। लिहाजा उस हसरत को पूुरी करने के लिए कांग्रेस में टिकिट वितरण से ही शह और मात का खेल शुरू हो गया।

ऐसे में पार्टी में अन्दरूणी गुटबाजी होना स्वाभाविक है। हालांकि कांग्रेस ने अपने सिर्फ एक ही मौजूदा का पत्ता काटा था। लेकिन पार्टी में टिकिट वितरण के बाद असंतोष उभरकर सामने आया। कांग्रेस के दर्जनों नेता बगागत करके निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी रण में कूदे हैं। जिनमें कई पूर्व विधायक और संगठन के वरिष्ठ पदाधिकारी शामिल हैं। वैसे टिकिट वितरण में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्या को अपने गृह जिले नैनीताल में मायूसी हाथ लगी। उनके करीबी माने जाने वाले एक पूर्व विधायक हरीश दुर्गापाल समेत तीन नेता निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। बागियों की फेहरिस्त में बड़ा नाम सांसद सतपाल महाराज के करीबी और मिनिस्टर रह चुके मंत्री प्रसाद नैथानी का है। कांग्रेस को भी भाजपा की तर्ज पर कमोबेश ढ़ाई दर्जन बागियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा।

इस सबके बीच पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने अप्रत्याशित रूप से अपने ही अंदाज में अपनी हैसियत का अहसास कराया। हैदराबाद राजभवन प्रकरण के बाद कांग्रेस में हाशिए पर चले गए तिवारी ऐन चुनावों में अपना ट्रेलर दिखाया। कांग्रेस हाईकमान ने एन डी के भतीजे मनीषि तिवारी को गदरपुर, रिश्तेदार एवं पूर्व में मंत्री रहे नवप्रभात को विकासनगर और उनके चर्चित ओसडी आर्येन्द्र शर्मा को सहसपुर से टिकिट थमाने में देर नहीं की। इतना ही नहीं तिवारी ने नैनीताल और उधमसिंहनगर जिले के कुछेक प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार करते हुए रोड शो किया। जिसमें उमड़ी भीड़ से पता चलता है कि लोगों में 87 साल के हो रहे एन डी का जलवा आज भी कायम हैं।

इन चुनावों में अपने जीवनकाल में तीसरी बार विभाजित हुए उत्तराखण्ड क्रन्ति दल के सामने जीवन मरण का सवाल खड़ा है। यह दल भाजपा सरकार से समर्थन वापसी के मुद्दे पर विधानसभा चुनावों से पहले ही दो फाड़ हो गया था। इस क्षेत्रीय दल को सूबे की सियासत में अपनी प्रासंगिता साबित करनी होगी। खण्डूरी सरकार में काबिना मंत्री दिवाकर भट्ट के नेतृत्व वाला यूकेडी डेमोक्रेटिक भारतीय जनता पार्टी की गोद में बैठ गया है। इस बार खुद दिवाकर भट्ट और एक अन्य विधायक ओमगोपाल रावत भाजपा के सिंबल पर चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि अपने आप को असली बताने वाला दूसरा गुट त्रिवेन्द्र पंवार के नेतृत्व वाला यूकेडी प्रोग्रेसिव है। जिसमें दल के शीर्ष नेता काशी सिंह ऐरी धारचूला, मौजूदा विधायक पुष्पेश त्रिपाठी द्वारहाट, पूर्व विधायक नारायण सिंह जंतवाल और प्रीतम पंवार यमुनोत्री से चुनाव लड़ रहे हैं। कहना गलत न होगा कि इनकी हार जीत के बाद ही यूकेडी का बचा खुचा भविष्य तय होगा।

समाजवादी पार्टी सूबे में अपना खाता खोलने से ज्यादा सोचने की हालत में नहीं है। उत्तराखण्डी जनमानस के मन में राज्य आंदोलन में बनी मुलायम सिंह यादव की खलनायक वाली छवि आज भी बरकरार है। लेकिन बहुजन समाज पार्टी जरूर कुछ उलट पलट करने के ख्वाबों के साथ चुनावी मैदान में उतरी है। वैसे भी अब तक हुए दो विधानसभा चुनावों बसपा की ताकत बढ़ी है। जहां उसे पहले आम चुनावों में 7 सीटें मिली थी, वहीं दूसरे चुनावों में बसपा ने अपना मत प्रतिशत साढ़े ग्यारह तक पहुंचाते हुए 8 सीटें हासिल की थी। जबकि उतराखण्ड का इकलौता क्षेत्रीय दल यूकेडी पहले आम चुनाव में कमोबेश साड़े पांच मत प्रतिशत के साथ 4 और दूसरे चुनाव में 3 सीटें ही जीत पाया था। साफ जाहिर है कि बसपा सूबे में अब तक तीसरे नम्बर की पार्टी बनी रही है। लेकिन बहुजन समाज पार्टी का जनाधार हरिद्वार एवं उधम सिंह नगर सरीखे मैदानी और देहरादून एवं नैनीताल जिलों के कुछ क्षेत्रों जिलों तक ही सीमित है।

बहुजन समाज पार्टी ने अभी तक इन दो जिलों की विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की है। मतलब साफ है कि मायावती का हाथी अभी तक पहाड़ों पर चढ़ाई करने में असफल रहा है। अलबत्ता बसपा को 2009 चुनावों में पहाड़ी क्षेत्रों में कुछेक सीटों पर बढ़त हासिल हुई। जिससे उत्साहित होकर पार्टी इस बार पहाड़ी क्षेत्रों में अपना खाता खोलने का ख्वाब पाले है। कांग्रेस और भाजपा में टिकिट बंटवारे के बाद हुई भारी बगावत ने बसपा की उम्मीदों में और पंख लगा दिए हैं। लेकिन उसकी इन संभावनाओं में केन्द्रिय संसदीय मंत्री हरीश रावत बाधक बनने का अंदेशा है। गौरतलब है कि रावत ने विगत लोकसभा चुनावों में बी एस पी के अभेद गढ़ में भारी सेंधमारी करते हुए हरिद्वार में जर्बदस्त जीत हासिल की थी। इस बार बसपा के विधायक रहे काजी निजामुद्दीन कांग्रेस का पंजा थामकर चुनावी मैदान में हैं। लिहाजा हरिद्वार जिला बसपा की संभावनाओं और हरीश रावत की मौजूदा ताकत के परीक्षण का फिर गवाह बनेगा।

इस बार नए परिसीमन के चलते विधानसभा की कुल 70 सीटों में 36 सीटें सिर्फ हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंहनगर और नैनीताल जिलों में समा गई हैं। जबकि बाकी 34 सीटें उत्तराखण्ड के बाकी नौ पर्वतीय जिलों में रह गई हैं। यानि उक्त चार जिलों के मतदाता आधी से ज्यादा विधानसभा की तस्वीर बनाएंगे। नए परिसीमन से करीब डेढ़ दर्जन पुरानी सीटों का वजूद खत्म हो गया तो कई विधानसभा सीटों के क्षेत्रों में अदला बदली हो गई। खुद मुख्यमंत्री बी सी खण्डूरी, पूर्व मुख्यमंत्री निशंक, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्या और यूकेडी नेता काशी सिंह ऐरी समेत कई अन्य कद्दावर नेताओं को नई सीट तलाशकर चुनाव लड़ना पड़ा। कांग्रेस और भाजपा को नए परिसीमन के गणित को समझने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन, बसपा ने नए परिसीमन के बाद मैदानी जिलों बढ़ी सीटों पर अपनी नजर गढ़ा रखी है। उसके रणनीतिकारो को लगता है कि अगर किसी एक दल को पूर्ण बहुमत नही मिलता तो नई सरकार के गठन में बड़ी भूमिका हो सकती है।

यू पी ए सरकार के घोटालों और अन्ना हजारे के आंदोलन की परछाई में उत्तराखण्ड के तीसरे चुनावी दंगल का आगाज हुआ। यही वजह है कि भाजपा हाईकमान ने चुनाव से ऐन पहले निशंक को हटाकर फौजी जनरल रहे खण्डूरी के नेतृत्व पर दांव लगाया। उसे लगता है कि खण्डूरी की साफ छवि पार्टी की नैया पार लगा देगी। लेकिन खुद भाजपा सरकार हुए कई घोटलों ने देश भर में सुर्खियां बटोरी। इसके अलावा भाजपा को पिछले पांच सालों में तीन बार हुए नेतृत्व परिवर्तनों का जबाब देते नहीं बन रहा। वैसे राज्य में दैवीय आपदा से निकले आंसू अभी सूख नहीं पाए हैं। सरकार और विपक्ष ने उस पर खूब सियासत की लेकिन प्रभावित क्षेत्रों और लोगों तक उपर्युक्त राहत आज तक नहीं पहुंच पाई। ऐसे में बी सी खण्डूरी के समक्ष सूबे के पालीटिकल ट्रेंड को बदलते हुए अपनी सरकार बचाने की कठिन चुनौती होगी।

बहरहाल, सूबे में जन आकांक्षाओं को कुचलते हुए राजनैतिक अतिवाद और महत्वकांक्षाएं तेजी से बढ़ रही हैं। ग्यारह सालों के उत्तराखण्ड में छह बार नेतृत्व बदलना इसकी परिणती ही है। राज्य के लोग सियासतदांओं के इस गैरजिम्मेदाराना राजनैतिक आचरण को खामोशी के साथ देखते आ रहे हैं। इा माहौल के बीच मतदाताओं की जनादेश रूपी राय जानने में सबकी दिलचस्पी बनी रहेगी।



राहुल सिंह शेखावत