Friday, September 24, 2010

पहले कभी नहीं हुई उत्तराखण्ड में ऐसी बारिश

देवभूमि उत्तराखण्ड से अब देवता ही नाराज हो गए हैं। कम से कम बारिश को देखकर तो ऐसा ही नज़र आ रहा है। लगता है आसमान से पानी नहीं बल्कि आफत बरसी है। उत्तराखण्ड राज्य में इस बरसाती सीजन के दौरान अब तक कमोबेश 200 लोग भगवान को प्यारे हो चुके हैं। हालांकि यह पर्वतीय राज्य दैवीय आपदा की द्रष्टि से तो हमेशा ही संवेदनशील रहा है। लेकिन, तबाही और आफत का ऐसा मंजर पिछली एक शताब्दी के दौरान कभी देखने को नही मिला।

यूं तो पूरे उत्तराखण्ड में जान एवं माल का जबर्दस्त नुकसान हुआ। लेकिन, गढ़वाल के मुकाबले कुमांउ मण्डल में बारिश ने अधिक तबाही मचाई। इस क्षेत्र में 18 और 19 सितम्बर को हुई बारिश में चार दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। जिन्हें मिलाकर कुमांउ मण्डल में ही अब तक 107 लोगों की मौत हो चुकी है। अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों के कई स्थानों पर बादल फटने के कई घटनाएं हुई। जिसकी वजह से दर्जनों लोग या तो जमीन्दोज हो गए, या फिर पानी के तेज बेग में बह गए।

कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तराखण्ड में बारिश इस कदर हुई कि आम जनजीवन ठहर नहीं, बल्कि सिहर उठा है। कुमांउ और गढ़वाल का आपस में सम्पर्क कट गया है। राज्य के मैदानी इलाकों में सड़कों के उपर पानी बह रहा है। वहीं पर्वतीय इलाकों के अधिकांश मार्गो पर भूस्खलन के चलते मलबा आ गया। राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में तो शायद ही कोई ऐसा सामान्य अथवा राजमार्ग होगा जिस पर यातायात सुचारू हो।

अगर कुमांउ मण्डल की बात करें तो नैनीताल हल्दवानी और भवाली अल्मोड़ा राजमार्ग सैकडो मीटर तक धंस गया है। वहीं, गढ़वाल में बदरीनाथ राजमार्ग पर तो इस बार तीर्थ याति्रयों की शामत ही गई। जहां तहां भूस्खखलन के चलते राजमार्ग पर लगातार मलबा आ रहा है। जिसकी वजह से सैकड़ों की संख्या में तीर्थ यात्री बीच रास्ते में दो तीन दिनों तक फंसे रहे। इतना ही नहीं, उन्हें भूखे प्यासे तक समय गुजारना पड़ा। जिससे आदर्श पर्यटन प्रदेश का दम भरने वाले उत्तराखण्ड की खासी फजीहत हो रही है।

पर्वतीय क्षेत्रों से इतर तराई और मैदान के तमाम इलाके पानी से डूबे हैं। उधमसिंह नगर जिले में भारी बाढ़ के चलते हजारों लोग प्रभावित हैं। बाढ़ प्रभावित लोग राहत शिविर या फिर अन्य सुरक्षित स्थान तलाशने की जददोजहद कर रहे हैं। देहरादून और हरिद्वार के बीच दो तीन दिनों तक रेल आवागमन पूरी तरह से ठप्प रहा। ये सूरतेहाल तो उत्तराखण्ड की मुख्यधारा में शुमार जिलों का है। दूरस्थ पहाडी क्षेत्रों में तो हातात बद से बदतर हैं क्योंकि उनका निचले इलाकों से सड़क सम्पर्क कटा हुआ है। नतीजतन, इन क्षेत्रों में खादय सामाग्राी का संकट पैदा हो गया है।

उधर, टिहरी परियोजना प्रशासन ने उत्तराखण्ड के िऋषिकेश एवं हरिद्वार को ही नहीं, बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को खतरे के मुहाने पर ला खड़ा किया है। दरअसल, चारों टरवाईन चलाकर अधिक बिजली उत्पादन करने की जुगत में टिहरी की झील में निर्धारित मानकों से कहीं उपर पानी बढ़ने दिया गया। बची खुची कसर मानसून ने जाते जाते पूरी कर दी। टिहरी विदयुत परियोजना प्रशासन ने अपनी इस करतूत को छिपाया। उत्तराखण्ड सरकार भी इसका पता लगाने में असफल रही। जिससे निचले क्षेत्रों की लाखों की आबादी की सांसे टंगी हुई हैं।

समूचे उत्तराखण्ड में बीती 18 अगस्त को बारिश के रूप में आफत बरस रही थी। लेकिन, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी सरकार अपने मन्ति्रमण्डल का विस्तार करने में मस्त थी। एक लोकतान्ति्रक व्यवस्था में क्या यह संवेदनहीनता की इन्तेहा नहीं है़र्षोर्षो क्या अच्छा नहीं होता कि उस मन्ति्रमण्डल विस्तार कार्यक्रम को कुछ दिनों को टाल दिया जाता। वहीं, राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी के कांग्रेस के अघिकांश नेता दिल्ली दरबार में प्रदेश अध्यक्ष की ताजपोशी के खातिर लाबिंग में लगे रहे।

हालांकि यह सच है कि जब कुदरत अपने पर आती तो किसी की नही चलती। लेकिन उसके कहर से बचने के लिए जूझने का जज्बा तो दिखाना ही पड़ता है। हालिया बारिश के दौरान राज्य की लचर प्रशासनिक व्यवस्थाओं की एक बार फिर पोल खुली है। खासतौर पर आपदा प्रबंधन महकमों के बड़े बडे़ दावों की। अतीत मे जब कभी भी बड़ी दैवीय आपदा आई तो राहत कार्यो के लिए आई टी बी पी या फिर सेना को हमेशा बुलाना पड़ा। राज्य का प्रशासन शायद ही कभी अपने दम पर उससे निपटने में सफल रहा होगा।

इसे बिडम्बना नहीं तो और क्या कहें जब कभी भी राज्य में विपदा की स्थिति होती है, तो पक्ष विपक्ष एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिशें करने में जुट जाते हैं। अच्छा होगा कि व्यवस्था के लिए जिम्मेदार लोग वर्तमान दैवीय आपदा के मददेनज़र उससे होने वाली जान माल की हानि को कम करने को पुख्ता इन्तजाम करने की पहल करें। अपने सपनों के उत्तराखण्ड में कम से कम इतना हक तो एक आम आदमी का बनता ही है।



राहुल सिंह शेखावत

Monday, September 13, 2010

गिरदा के बिना उत्तराखण्ड में सन्नाटा नज़र आता है

उत्तराखण्ड के मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी गिरदा ने दुनिया को अलविदा कह दिया है। लंबे समय से अल्सर की बीमारी से जूझ रहे गिरदा ने बीते 22 अगस्त को नैनीताल जिले के हल्दवानी शहर के एक अस्पताल में दम तोड दिया। उनकी मौत के साथ ही उत्तराखण्ड की अन्तर्रात्मा की आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई। वह एक जनकवि होने के साथ साथ जनवादी आन्दोलनकारी, रंगकमी, लेखक एवं एक बेहतरीन निर्देशक भी थे। लेकिन इन सबसे हटकर गिरदा अभिव्यक्ति के बेताज बादशाह थे। साथ ही, उनका पहाड की लोक संस्कृति में असाधारण दखल था। गिरदा नामक एक इंसान अपने भीतर इन तमाम खूबियों को समेटे हुए था। यही वजह है कि उनकी मौत के बाद उत्तराखण्ड में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया है जिसकी भरपाई असम्भव है!

बहुआयामी शिख्शयत गिरीश तिवाडी अपने चहेतों के बीच गिरदा के उपनाम से मशहूर थे। गिरीश तिवाडी से गिरदा बन जाने के बीच लंबा संघर्ष और त्याग की कहानी छिपी है। वह अल्मोडा के हबालबाग विकास खण्ड के ज्यौली गांव के एक उच्चकुलीन परिवार में साल 1945 में पैदा हुए। गिरदा ने शुरूआती दौर में आजीविका के लिए लखनउ में क्लकीZ की नौकरी की। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने रिक्शा खींचकर भी अपने दिन गुजारे। शायद यहीं से उनके अन्दर जनवाद के बीच पड गये। गिरदा ने 1967 में भारत सरकार के गीत एवं नाटय प्रभाग में बतौर अनुदेशक नौकरी शुरू की। सही मायनों में यहीे से उनके बहुआयामी जीवन का सिलसिला शुरू हुआ।

उत्राखण्ड में रंगमंच को आधुनिक रूप देने का श्रेय गिरदा को जाता है। उन्होंने लेनिन पन्त, मोहन उपे्रती और प्रोफेसर शेखर पाठक सरीखे लोगों के साथ मिलकर नैनीताल में युगमंच नामक संस्था की बुनियाद रखी। गिरदा के निर्देशन में 1976 में अंधायुग नामक नाटक का मंचन किया गया। गिरदा ने नाटकों में पहाडी लोक तत्वों का अदभुत समावेश किया। उन्होंने बाद में थैक्यू मिस्टर ग्लाड और अंधेरनगरी सरीखे नाटकों के जरिए तत्कालीन केन्द्र सरकार दवारा थोपे गए आपातकाल का प्रतिरोध किया गया। उसके बाद भी कई मौके आए जब सरकारी नौकरी में रहते हुए गिरदा ने जनसरोकारों के खातिर सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की। उन्होंने हमेशा कविताओं और जनगीतों को ही अपने प्रतिरोध का हथियार बनाया।

यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि गिरदा और आन्दोलन दोनों एक दूसरे के हमेशा पर्याय बने रहेे। 70 के दशक में राज्य में चले वन आन्दोलन के दौरान गिरदा एक नए अवतार में लोगों के सामने आए। उन्होंने हुडका बजाते हुए सडको पर उतरकर आन्दोलन में शिरकत की थी। गिरदा के उस आन्दोलनकारी कदम ने समाज में एक नई बहस छेड दी। गौरतलब है कि उस दौर में हुडका कथित तौर पर छोटी जाति वाले लोग ही बजाते थे। एक उच्च कुलीन ब्राहमण होने के बाबजूद उन्होंने हुडका पकडकर समाज की जातिवादी व्यवस्था को चुनौती देने का बडा काम किया। धर्म और समाज के ठेकेदारों को गिरदा का वह अन्दाज पंसद नहीं आया। लेकिन गिरदा की उस बगाबत के पीछे उनकी जनवादी सोच छिपी हुई थी।

1994 के उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान गिरदा ने अपने जनगीतों और कविताओं के माध्यम से पहाडी जनमानस को उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए बडे प्रभावशाली ढंग से आन्दोलित करने का काम किया। उन्होंने अपने जनगीतों और अदभुत अभिव्यक्ति के माध्यम से लोगों के अन्दर इंकलाब पैदा किया। राज्य आन्दोलन के दौरान गिरदा का उत्तराखण्ड बुलेटिन खासा सुर्खियों में रहा। वह आन्दोलन से जुडी हर रोज की घटना को अपनी कविता के माध्यम से लोगों को सुनाते थे। जब भी कहीं राज्य आन्दोलन या फिर आन्दोलनकारियों के दमन की खबरें आती थी उन्हें और एक नई कविता लिखने और सुनाने का मौका मिला जाता था।

गिरदा ने लोगों को भावी उत्तराखण्ड की तस्वीर भी लोगों को आन्दोलन के वक्त ही दिखा दी थी। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड आगामी 9 नबम्बर को दस साल की उम्र पूरी करने जा रहा है। इस अल्पायु में ही राज्य में लोग अक्सर यह कहते हुए सुनाई पड जाते हैं कि राज्य के वर्तमान हालातों से तो पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश का जमाना भी बहुत ज्यादा बुरा नहीं था। मजेदार बात ये है कि गिरदा ने इस तस्वीर या फिर कहें कि आशंका को राज्य आन्दोलन के दौरान ही लोगों के सामने ला दिया था। जिसकी बानगी उनकी कविता कस होली विकास नीति कस हमारा नेता में दिखाई देती है।

गिरदा ने अपने जीवन के दौरान उत्तराखण्ड की आंचलिक प्रतिद्वन्दता घटाने का सराहनीय कार्य किया। वह अपने व्यक्तित्व और आित्मक व्यवहार के चलते कुमांउ और गढवाल के सेतू के रूप में देखे गए। उनकी स्वीकार्यता राज्य के दोनों मण्डलों में बराबर थी, चाहे वह कुमांउ हो या फिर गढवाल। गिरदा और लोक गायक नरेंन्द्र सिंह नेगी की जुगलबन्दी लोगों को खूब पसन्द आई थी। इन सब बातों के अलावा गिरदा में खासियत थी कि वह बेहद गम्भीर मसले को बडी सहजता के साथ अपनी कविताओं के माध्यम से कहने का दम रखते थे। उन्होंने राज्य बनने के बाद अपनी बेखौफ अभिव्यक्ति जारी रखी।

गिरदा के मन मस्तिष्क में पहाड इस कदर हावी था कि बीमार होने के बाबजूद वह मसूरी, खटीमा और मुजफफरनगर काण्डों की बरसी पर धरने पर बैठने से नहीं चूकते थे। कहना न होगा कि गिरदा एक जनकवि या फिर महज एक आन्दोलनकारी भर नहीं थे। दरअसल, वह उत्तराखण्ड की अन्तर्रात्मा की आवाज के सच्चे वाहक थे।

एक पत्रकार के तौर मुझे उनके व्यक्तित्व के कई आयामों को देखने का मौका मिला। मै उन्हें याद करके अपने आप से एक ही सवाल पूछता हूं कि बिना गिरदा के उत्तराखण्ड का क्या मतलब है। क्या अच्चा नहीं होता कि गिरदा राज्य गठन के एक दशक पूरा होने पर अपनी एक कविता के साथ प्रतिक्रिया देने के लिए मौजूद रहते। उत्तराखण्ड के हालातों पर एक बेबाक, सटीक और गम्भीर टिप्पणी करने का दम सिर्फ और सिर्फ गिरदा ही रखते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने उत्तराखण्ड की लडाई की अगुवाई तो की, लेकिन राज्य बन जाने के बाद कभी अपने नीजि स्वार्थ का ख्वाब नहीं देखा।

राहुल सिंह शेखावत

टेलीविजन पत्रकार