फकत कुछ हासिल ही करने से दूर रही खवाहिशे मेरी
वो भी कभी नहीं चाहा अमूमन जिसकी चाह लोग रखते हैं
रिश्तों को स्वार्थ के चस्मे से भी कभी नहीं देखा मैंने
न जाने फिर भी क्यों लोगों को गलतफहमी हो जाती है
हमेशा ही खुद को भूलाकर ही रिश्तांे को सहेजता रहा
स्वार्थ इतना था कि उनकी अपनेपन की कमी दूर हो जाए
लेकिन न जाने क्यूं उन्हें करीबीयां ही खटकने लगी हैं
न जाने क्यों हकीकत से कहीं दूर रही हैं ख्वाहिशें मेरी
फिर भी ख्वाहिश है कि ये ख्वाब हकीकत हो जाए
उन्हें इल्म होगा कि मेरा जुर्म कुछ और नहीं महज अपनापन है