Thursday, February 10, 2011

वह विधवा थी या फिर सुहागिन



      मैं इस सवाल का जबाब बीती 18 जनवारी से ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। दरअसल, उस रोज मैं अपने एक पत्रकार साथी जगदीश जोशी के साथ नैनीताल शहर के डांठ पर खड़ा था। लोगों की भीड़ को देखकर मुझे कहानी समझ में आ गई थी। उसी बीच मेरी नज़रों के सामने से एक नहीं बल्कि दो अर्थियां एक साथ गुजर गई। मैनें वहां खड़े एक पुलिसकर्मी से पूछा कि एक साथ जाने वाले दो लोगों कौन थे
      उसने जबाब दिया कि डी जी सी साहब और उनकी पत्नी। दरअसल जिला शासकीय अधिवक्ता रवि साह की कार पिथौरागढ़ जिले में खाई में गिर गई थी। उस वक्त उनकी धर्मपत्नी मीना साह भी उनके साथ थी। रवि साह की मौत तो मौके पर ही हो गई थी, लेकिन  उनकी पत्नी की कुछ सांसे बाकी थी। उन्हें पिथौरागढ़ के अस्पताल में भरती जरूर कराया गया लेकिन जिन्दगी की जंग जीत नहीं पाई।
      राम नाम सत्य है कि गूंज के बीच देखते ही देखते अधिवक्ता दम्पत्ति की अन्तिम यात्रा आंखों के सामने से ओझल हो गई। इससे पहले कि मैं अपने साथ मौजूद पत्रकार साथी से कुछ कहता। उन्होंने कहा कि यार शेखावत जी दोनों खुशनसीब थें। भगवान ने गजब का न्याय किया है। चन्द दिनों पहले ही दोनों अपनी बिटियां की शादी करके पारिवारिक जिम्मेदारी से मुक्त हुए थे। और अब  पारिवारिक जिम्मेदारी से भी मुक्त हुए थे।
     लेकिन, मैंने अनायास जगदीश जोशी जी से कहा। महाराज, खुशनसीब किसे कह रहे हो। जोशी जी बोले कि दोनों ही एक साथ भगवान को प्यारे हुए हैं। मैंने उनसे फिर एक सवाल किया। क्या रवि साह जी की पित्न भी उनके जैसी भाग्यवान हैं। जोशी जी ने पहले तो मेरे चौखटे को शान्त होकर गौर से देखा और फिर हल्का सा मुस्कराए।
      मैंने कहा कि आपका समाज तो पति की मौत पहले होने वाली महिला को विधवा कहता है। भले ही साह दम्पत्ति एक साथ कार दुघZटना का शिकार हुए। लेकिन पत्नी ने तो बाद में दम तोड़ा था। आप मीना साह को किस श्रेणी में रखोगे। मेरे इतना कहने पर जोशी जी ने कहा कि यार भगवान की माया अपरम्पार है। लेकिन राहुल भाई तुम्हारी दलील एकदम जायज है। इतनी बात के बाद हम दोनों अपने अपने काम पर चल दिए।
     लेकिन, मुझे सवाल का सन्तोषजनक जबाब नहीं मिल पाया था। लिहाजा मुझे रूक रूक कर वह बात याद आ ही जाती हैं। शायद यही वजह है कि उस घटना को काफी दिन बीत जाने के बाद मैं अपने मन की व्यथा लिखने को मजबूर हूं। मैं अपने चेतनाकाल से ही कुछ मामलों में अतिवादी रहा हूं। शायद यही वजह है कि मुझे विधवा शब्द से हमेशा ही चिढ़ रही है। फिर भी, ऐसे लम्हें का चश्मदीद बनूंगा, शायद ही मैंने कभी सोचा होगा।
      मुझे मृतक दम्पत्ति की बिरादरी के एक वयक्ति ने बताया कि मीना साह मरने से पहले होश में आई थी। उस दौरान उन्होंने सबसे पहले अपने पति की तबियत के बारे में पूछा था। हालांकि उनको असलियत नहीं बताई गई थी। यह भारतीय महिला के व्यक्तित्व का एक खूबसूरत पहलू है। खुद मर रही होती है लेकिन पति की हालत पूछने की हिम्मत जुटा ही लेती है। फिर भी ये किसी बिडम्बना से कम नहीं है कि हमारे समाज में एक महिला का विधवा होना एक विधुर पुरूष के मुकाबले कहीं ज्यादा कष्टकारी है।
      लेकिन धर्म और परम्पराओं का लबादा ओढ़ने वाले ठेकेदारों ने रिश्तों ही नहीं बल्कि दुख का भी वर्गीकरण करके तथाकथित आधुनिक समाज पर भी थोप रखा है। मैं एक बात बिल्कुल साफ कर देना चाहता हूं कि मेरा मकसद मृतक दम्पत्ति के परिजनों की भावनाओं का चोट पहुंचाना नहीं है। साथ ही मुझे नहीं मालूम कि मीना साह को उनके परिजनों ने क्या मानकर विदा किया। मेरा मानना है कि पति और पत्नी में अटूट प्यार था। तभी दोनों जीवन की अन्तिम यात्रा में एक साथ विदा हुए।
      यह मेरा वयक्तिगत विचार है। इससे हर आदमी और खासतौर पर कर्मकाण्डी लोग सहमत हों जरूरी नहीं है। मैं पूर्ण रूप से नास्तिक तो नहीं लेकिन बहुत ज्यादा आस्तिक भी कभी नहीं रहा हूं। भगवान ने साह दम्पत्ति को एक साथ सड़क दुघZटना का शिकार बनाकर साथ ही साथ दोनों को वापस बुला लिया। बस दोनों की सांसे निकलने में बहुत कम अन्तर था। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या पति पत्नी की सांसे निकलने के बीच का अन्तर विधवा जैसे दकियानूसी शब्द को त्यागने का मौका नहीं देता है।
                                                        
                                         राहुल सिंह शेखावत
    
    

1 comment:

  1. you have raised a pertinent question,we need to throw a new look on age old customs,which are rotten,outmoded,degrading,inhuman,and retrogressive.you have picked up the emotions caused by a tragic incident in our town.whatever you have said is a very serious matter.

    ReplyDelete