Monday, September 13, 2010

गिरदा के बिना उत्तराखण्ड में सन्नाटा नज़र आता है

उत्तराखण्ड के मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी गिरदा ने दुनिया को अलविदा कह दिया है। लंबे समय से अल्सर की बीमारी से जूझ रहे गिरदा ने बीते 22 अगस्त को नैनीताल जिले के हल्दवानी शहर के एक अस्पताल में दम तोड दिया। उनकी मौत के साथ ही उत्तराखण्ड की अन्तर्रात्मा की आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई। वह एक जनकवि होने के साथ साथ जनवादी आन्दोलनकारी, रंगकमी, लेखक एवं एक बेहतरीन निर्देशक भी थे। लेकिन इन सबसे हटकर गिरदा अभिव्यक्ति के बेताज बादशाह थे। साथ ही, उनका पहाड की लोक संस्कृति में असाधारण दखल था। गिरदा नामक एक इंसान अपने भीतर इन तमाम खूबियों को समेटे हुए था। यही वजह है कि उनकी मौत के बाद उत्तराखण्ड में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया है जिसकी भरपाई असम्भव है!

बहुआयामी शिख्शयत गिरीश तिवाडी अपने चहेतों के बीच गिरदा के उपनाम से मशहूर थे। गिरीश तिवाडी से गिरदा बन जाने के बीच लंबा संघर्ष और त्याग की कहानी छिपी है। वह अल्मोडा के हबालबाग विकास खण्ड के ज्यौली गांव के एक उच्चकुलीन परिवार में साल 1945 में पैदा हुए। गिरदा ने शुरूआती दौर में आजीविका के लिए लखनउ में क्लकीZ की नौकरी की। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने रिक्शा खींचकर भी अपने दिन गुजारे। शायद यहीं से उनके अन्दर जनवाद के बीच पड गये। गिरदा ने 1967 में भारत सरकार के गीत एवं नाटय प्रभाग में बतौर अनुदेशक नौकरी शुरू की। सही मायनों में यहीे से उनके बहुआयामी जीवन का सिलसिला शुरू हुआ।

उत्राखण्ड में रंगमंच को आधुनिक रूप देने का श्रेय गिरदा को जाता है। उन्होंने लेनिन पन्त, मोहन उपे्रती और प्रोफेसर शेखर पाठक सरीखे लोगों के साथ मिलकर नैनीताल में युगमंच नामक संस्था की बुनियाद रखी। गिरदा के निर्देशन में 1976 में अंधायुग नामक नाटक का मंचन किया गया। गिरदा ने नाटकों में पहाडी लोक तत्वों का अदभुत समावेश किया। उन्होंने बाद में थैक्यू मिस्टर ग्लाड और अंधेरनगरी सरीखे नाटकों के जरिए तत्कालीन केन्द्र सरकार दवारा थोपे गए आपातकाल का प्रतिरोध किया गया। उसके बाद भी कई मौके आए जब सरकारी नौकरी में रहते हुए गिरदा ने जनसरोकारों के खातिर सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की। उन्होंने हमेशा कविताओं और जनगीतों को ही अपने प्रतिरोध का हथियार बनाया।

यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि गिरदा और आन्दोलन दोनों एक दूसरे के हमेशा पर्याय बने रहेे। 70 के दशक में राज्य में चले वन आन्दोलन के दौरान गिरदा एक नए अवतार में लोगों के सामने आए। उन्होंने हुडका बजाते हुए सडको पर उतरकर आन्दोलन में शिरकत की थी। गिरदा के उस आन्दोलनकारी कदम ने समाज में एक नई बहस छेड दी। गौरतलब है कि उस दौर में हुडका कथित तौर पर छोटी जाति वाले लोग ही बजाते थे। एक उच्च कुलीन ब्राहमण होने के बाबजूद उन्होंने हुडका पकडकर समाज की जातिवादी व्यवस्था को चुनौती देने का बडा काम किया। धर्म और समाज के ठेकेदारों को गिरदा का वह अन्दाज पंसद नहीं आया। लेकिन गिरदा की उस बगाबत के पीछे उनकी जनवादी सोच छिपी हुई थी।

1994 के उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान गिरदा ने अपने जनगीतों और कविताओं के माध्यम से पहाडी जनमानस को उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए बडे प्रभावशाली ढंग से आन्दोलित करने का काम किया। उन्होंने अपने जनगीतों और अदभुत अभिव्यक्ति के माध्यम से लोगों के अन्दर इंकलाब पैदा किया। राज्य आन्दोलन के दौरान गिरदा का उत्तराखण्ड बुलेटिन खासा सुर्खियों में रहा। वह आन्दोलन से जुडी हर रोज की घटना को अपनी कविता के माध्यम से लोगों को सुनाते थे। जब भी कहीं राज्य आन्दोलन या फिर आन्दोलनकारियों के दमन की खबरें आती थी उन्हें और एक नई कविता लिखने और सुनाने का मौका मिला जाता था।

गिरदा ने लोगों को भावी उत्तराखण्ड की तस्वीर भी लोगों को आन्दोलन के वक्त ही दिखा दी थी। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड आगामी 9 नबम्बर को दस साल की उम्र पूरी करने जा रहा है। इस अल्पायु में ही राज्य में लोग अक्सर यह कहते हुए सुनाई पड जाते हैं कि राज्य के वर्तमान हालातों से तो पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश का जमाना भी बहुत ज्यादा बुरा नहीं था। मजेदार बात ये है कि गिरदा ने इस तस्वीर या फिर कहें कि आशंका को राज्य आन्दोलन के दौरान ही लोगों के सामने ला दिया था। जिसकी बानगी उनकी कविता कस होली विकास नीति कस हमारा नेता में दिखाई देती है।

गिरदा ने अपने जीवन के दौरान उत्तराखण्ड की आंचलिक प्रतिद्वन्दता घटाने का सराहनीय कार्य किया। वह अपने व्यक्तित्व और आित्मक व्यवहार के चलते कुमांउ और गढवाल के सेतू के रूप में देखे गए। उनकी स्वीकार्यता राज्य के दोनों मण्डलों में बराबर थी, चाहे वह कुमांउ हो या फिर गढवाल। गिरदा और लोक गायक नरेंन्द्र सिंह नेगी की जुगलबन्दी लोगों को खूब पसन्द आई थी। इन सब बातों के अलावा गिरदा में खासियत थी कि वह बेहद गम्भीर मसले को बडी सहजता के साथ अपनी कविताओं के माध्यम से कहने का दम रखते थे। उन्होंने राज्य बनने के बाद अपनी बेखौफ अभिव्यक्ति जारी रखी।

गिरदा के मन मस्तिष्क में पहाड इस कदर हावी था कि बीमार होने के बाबजूद वह मसूरी, खटीमा और मुजफफरनगर काण्डों की बरसी पर धरने पर बैठने से नहीं चूकते थे। कहना न होगा कि गिरदा एक जनकवि या फिर महज एक आन्दोलनकारी भर नहीं थे। दरअसल, वह उत्तराखण्ड की अन्तर्रात्मा की आवाज के सच्चे वाहक थे।

एक पत्रकार के तौर मुझे उनके व्यक्तित्व के कई आयामों को देखने का मौका मिला। मै उन्हें याद करके अपने आप से एक ही सवाल पूछता हूं कि बिना गिरदा के उत्तराखण्ड का क्या मतलब है। क्या अच्चा नहीं होता कि गिरदा राज्य गठन के एक दशक पूरा होने पर अपनी एक कविता के साथ प्रतिक्रिया देने के लिए मौजूद रहते। उत्तराखण्ड के हालातों पर एक बेबाक, सटीक और गम्भीर टिप्पणी करने का दम सिर्फ और सिर्फ गिरदा ही रखते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने उत्तराखण्ड की लडाई की अगुवाई तो की, लेकिन राज्य बन जाने के बाद कभी अपने नीजि स्वार्थ का ख्वाब नहीं देखा।

राहुल सिंह शेखावत

टेलीविजन पत्रकार

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