17 वी लोकसभा के चुनाव में "द ग्रेट ग्रांड ओल्ड पार्टी" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की करारी हार हुई है।उसे पिछले चुनाव में न्यूनतम 44 सीटें मिली थी, तो इस बार भी सिर्फ 52 सीटें जीत पाई। जबकि नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा ने पिछली बार के 282 के रिकॉर्ड तोड़कर 303 सीटें जीतने का अकल्पनीय कीर्तिमान बना दिया। कांग्रेस की शर्मनाक हार का आलम ये रहा कि केंद्रशासित मिलाकर देश के डेढ़ दर्जन से ज्यादा राज्यों में उसका खाता भी नहीं खुल पाया। इतना ही नहीं, खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी में चुनाव हार गए। मतलब 2014 के चुनावों में सोनिया गांधी और अब 2019 में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की लगातार दूसरी सबसे बड़ी हार के बाद गांधी परिवार का करिश्मा ही सवालों के घेरे में आ गया है। बड़ा सवाल ये है कि अब कांग्रेस हार के डरावने भूत से कैसे पीछा छुड़ाएगी?
राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में हार की जिम्मेदारी की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद इस्तीफे की पेशकश कर दी है। जिसे उम्मीद कहें या रवायत के मुताबिक सदस्यों ने सिरे से नकार दिया। फिलहाल CWC ने पार्टी संगठन की मजबूती के लिए उन्हें आमूलचूल परिवर्तन के लिए अधिकृत कर दिया हैै। कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी संगठन का हाल ये है कि गुटबाजी के चलते कई राज्यों में तो उसकी कार्यकारिणी तक नहीं गठित हो पाई। लिहाजा, कांग्रेस की हार पार्टी कार्यकर्ताओं केे लिए सदमा हो सकती है, लेकिन अस्वाभाविक बिल्कुल नहीं। यक्ष प्रश्न ये है कि क्या राहुल अपने स्टैंड पर कायम रहेंगे या कांग्रेसी उन्हें त्यागपत्र वापसी के लिए मना लेंगे। अगर वो नहीं माने तो फिर नरेंद्रमोदी युग में कांग्रेस का वजूद बचाने वाला अगला खेवनहार कौन होगा।
क्या उसकी तलाश उस कांग्रेस के लिए आसान होगी, जो गांधी परिवार के नेतृत्व रूपी ऑक्सीजन के बिना हांफने लगती है। नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के दौर इसके उदाहरण हैं। उसी दौर में तिवारी कांग्रेस, मूपनार कांग्रेस और माधव राव सिंधिया की अलग कांग्रेस बनी थी। सवाल ये है कि कांग्रेस आखिर किस पर दांव लगाए? कैप्टनअमरिंदर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत सरीखे कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री 70 साल की उम्र वाले ग्रुप में हैं। खुद गहलोत राजस्थान में अपने बेटे वैभव को नहीं जीता पाए तो कमलनाथ अपने बेटे के अलावा मध्यप्रदेश में किसी और को नहीं जीता सके। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे अशोक चव्हाण, भूपिंदर हुड्डा, वीरप्पा मोईली, नबाम तुकी और हरीश रावत तक अपनी-अपनी लोकसभा सीटों पर चुनाव हार गए।
पार्टी की यूथ ब्रिगेड की फ्रंट लाइन में शुमार ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा, भंवर जीतेंद्र सिंह, खुद अपनी सीटें नहीं बचा पाए। अगर महिला नेत्रियों की बात करें तो कुमारी शैलजा और सुष्मिता देव चुनाव हार गईं। कभी कांग्रेस की अन्तरात्मा के वाहक रहे स्वर्गीय राजेश पायलट के पुत्र राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट बतौर प्रदेश अध्यक्ष राज्य में पार्टी के किसी एक प्रत्याशी को नहीं
जीता पाए। वैसे ये भी तथ्य गौर करने के लायक है कि उपरोक्त युवा नेताओं में अधिकांश वंशवाद के सहारे स्थापित हुए हैं। क्या इनमें अखिल भारतीय स्तर पर कार्यकर्ताओं में अलख जगाने की क्षमता है? अगर राहुल इस्तीफे पर अड़ ही जाते हैं तो इनसे अलग भी किसी और चेहरे पर विचार क्यों ना हो।
वैसे मोदी सरीखी बेहद मजबूत शख्सियत के खिलाफ नकारात्मक इलेक्शन कैंपेनिंग और कमजोर संगठन कांग्रेस की हार की बड़ी वजह रहीं। एक इस्तीफा और विलाप की रस्मअदायगी तो कतई भी कांग्रेस की बीमारी का हल नहीं है। बेहतर ये है कि इतना संघर्ष करने के बाद राहुल पद पर रहकर कांग्रेस का दीर्घकालीन ओवरहालिंग करें। नए भारत के मतदाताओं के दिल में जगह बनाने के लिए सबसे पहले एक खेप को मार्गदर्शकमंडल में भेजने का वक्त आ गया है। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो अब नए भुपेशबघेल तैयार करने होंगे। राहुल गांधी को भविष्य के मद्देनजर अशोकगहलोत, हरीशरावत और YSR रेड्डी सरीखे नए जमीनी नेता ढूंढकर तराशने पड़ेंगे। इनका जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि सभी ने जमीन से उठाकर अपना-अपना मुकाम हासिल किया।
कोई माने या ना माने लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने में गांधी परिवार के कथित वफादारों की अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। हाईकमान पर कुंडली मारे कथित वफादारों का घेरा कांग्रेस को पुराने फॉर्मेट से बाहर नहीं निकलने देता। जिनकी चापलूसी और चाटूकारिता के चलते 10 जनपथ और जमीन नेताओं में हमेशा दूरी रहती है। बची खुची कसर प्रणवमुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद पूरी हो गई। मानो कांग्रेस में राजनीतिक चातुर्य का तो अकाल ही पड़ गया। जहां मोदी-शाह की जोड़ी ने भारत की राजनीति के मायने ही बदल दिए, वहीं कांग्रेस में जनमानस की नब्ज पहचानने के चातुर्य एवं समझ का भारी टोटा है। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी पूरे चुनाव प्रचार में सिर्फ रॉफेल पर ही नहीं अटके रहते। इसके उलट मोदी ने मतदान के हर चरण में पब्लिक मूड को भांपते हुए प्रचार करके कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को घुटनों के बल लिटा दिया।
प्रणबदा राजनीतिक दलों की सीमाओं से ऊपर मौजूदा दौर में देश में सबसे ज्यादा सम्मानित और निर्विवाद शख्सियत हैं। ये तो कांग्रेस का सौभाग्य है कि वह उसके नेता रहे हैं। लिहाजा, राहुल गांधी के लिए उनसे पोलिटिकल क्लेवरनेस एंड हैंडलिंग के गुुर सीखने के लिए आगे आना चाहिए। कहा जाता है कि राहुल अनुभवी नेताओं की राय लेने में तो संकोच नहीं करते, लेकिन उसको लागू करने में ड्राइंगरूम एक्सपर्ट नेताओं अथवा सलाहकारों की एक के एक समूह पर निर्भर रहते हैं। दरअसल उनके चारों और विदेशों में बहुत ज्यादा पढ़े लिखे अथवा टेक्नोक्रेटस का घेरा है, जिसे सिरे से खत्म नहीं बल्कि कम करके जमीनी ऊर्जावान नेताओं को तरजीह देने की जरूरत है।
मेरे विचार से कांग्रेस को इस दयनीय स्थिति में पहुंचाने का दोषी अकेले राहुल गांधी को ठहराना भी कहीं ना कहीं उनके साथ घोर अन्याय है। इसकी बुनियाद तो तब पड़ी जब बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बहुत शक्तिशाली थी। कांग्रेस संजय गांधी के जेबी संगठन में तब्दील हो गई। उस दौर में चाटुकरिता एवं चापलूसी से स्थापित हुए नेता मौजूदा वक्त में ना सिर्फ पार्टी पर बोझ बल्कि दीमक समान हैं। इस क्लब के तमाम महानुभाव गांधी परिवार की वफादारी के नाम पर जमीनी नेताओं को धकियाकर हमेशा एक समानांतर पॉवर सेंटर बने रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई है कि सोनिया गांधी उन पर बहुत ज्यादा भरोसा करती हैं। जबकि राहुल चाहते हुए भी अभी तक उनसे पीछा छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का जन्म ही शरद पंवार के नेतृत्व में विदेशी मूल के नाम पर सोनिया गांधी के नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह के फलस्वरूप हुआ था। भला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग होकर पश्चिम बंगाल में तृणमूल क्यों बनी? और आंध्र प्रदेश में YSR कांग्रेस बनने के लिए जिम्मेदार कौन है? और जब कांग्रेस से अलग होकर ये पार्टियां बन रही थीं तो क्या सोनिया राज में उसे रोकने के कितने गम्भीर प्रयास हुए थे? आंध्र प्रदेश के तत्कालीन करिश्माई मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी (YSR) की मौत के बाद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की महत्वाकांक्षाएं हिलौरे ले रही थी। लेकिन वफादारी के नाम पर जनाधारविहीन रौसय्या को मुख्यमंत्री बनाने का गलत फैसला लिया गया। फिर जगन के बढ़ते जनाधार को काउंटर करने के लिए रौसय्या को हटाकर किरण रेड्डी को कमान दी गई। उन हालातों के बीच जगन ने पार्टी से विद्रोह करके YSR कांग्रेस के रूप में एक अलग पार्टी बना ली। 2014 के चुनावों की आहट के बीच यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में तेलंगाना राज्य का गठन हुआ। जिसके खिलाफ उभरे जनाक्रोश के मद्देनजर किरण ने भी कांग्रेस छोड़कर अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी।
इन सारे घटनाक्रमों के सिर्फ पांच साल बाद अब 2019 में जगन आंध्र के मुख्यमंत्री बन गए हैं।और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार ना तो लोकसभा और ना विधानसभा में जीतकर पहुंचने में सफल हो पाया। ये वही आन्ध्र प्रदेश है, जहां YSR रेड्डी ने मुख्यमंत्री रहते हुए 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनाने और फिर 2009 दूसरी को मजबूती देने के लिए एकतरफा सीटें जीताकर कर दीं। मतलब कांग्रेस की आंध्र प्रदेश में स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि पहले तो सिर पिटा और फिर घर भी लुट गया। क्या इसके लिए सोनिया गांधी अथवा उनके सलाहकार जवाब देने की स्थिति में हैं? शायद नहीं।
कभी मराठा क्षत्रप शरद पंवार ने सोनिया के विदेशी मूल के खिलाफ हल्ला बोल करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली थी। लेकिन, उन्होंने 2004 में UPA के गठन के वक्त उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद कभी दोनों पार्टियों के विलय के प्रयास नहीं हुए। जबकि महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी न सिर्फ मिलकर चुनाव लड़ते हैं बल्कि 10 सरकार साथ चलाई। दरअसल, सोनिया बतौर अध्यक्ष कांग्रेस के लिए एक अच्छी कोऑर्डिनेटर साबित हुईं। गांधी परिवार की विरासत और अपने चातुर्य के दम पर क्षेत्रीय दलों को UPA नामक छतरी में लाकर लगातार दो बार सरकार बनवाने में कामयाब रही। लेकिन, वो कांग्रेस संगठन को अपेक्षित मजबूती देने में नाकाम रही।
मौजूदा दौर में मोदी-शाह की जोड़ी ने राजनीतिक हार-जीत के नए पैमाने तय कर दिए हैं। लिहाजा उन कांग्रेसियों को "करिश्मे" की आस की आदत छोड़कर निश्चय के साथ जमीन पर काम करने की आदत डाल लेनी चाहिए, जो सोनिया-राहुल के बाद अब प्रियंका गांधी में कांग्रेस का भविष्य तलाशने की मृगतृष्णा पाले हैं। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित होना है तो दो लगातार सबसे शर्मनाक हार के बाद अहसास कर लेना चाहिए कि हर चीज "एक्सपायरी डेट" होती है।
सनद रहे कि कांग्रेस का संकट सिर्फ उसके लचर संगठन तक सीमित नहीं है। उसकी सबसे बड़ी चुनौती नए भारत का वो युवा मतदाता को आकर्षित करना है, जिसने पहले बतौर प्रधानमंत्री सिर्फ "शांत" डॉ मनमोहन सिंह के 10 साल देखे। उसके बाद अति सक्रिय "शोमैन" नरेंद्र मोदी के पांच साल का कार्यकाल देखकर तुलनात्मक रूप से अपने मनमानस में कांग्रेस की एक छवि गढ़ी है। मोदी देश में अपने हिसाब से राष्ट्रवाद का "नैरेटिब" गढ़ जनमानस को खुद की तरफ खींचने में कामयाब रहे हैं। जिसका मुुकाबला करने के लिए कांग्रेस को वैचारिक भ्रम या कहें दुर्बलता को दूर कर स्पष्ट लाइन पकड़नी होगी।
फिलहाल कांग्रेस में राहुल गांधी को पद पर बनाए रखने के लिए पदाधिकारीयों के इस्तीफा देने का दौर चल रहा है। सनद रहे कि 2014 की स्थिति लंबी ना रहे जब हार के बाद राहुल की ताजपोशी तक एक निष्क्रियता रही। इस बीच कांग्रेस की मौजूदा उहांपोह की स्थिति में तेलंगाना के एक दर्जन विधायक सत्ताधारी TRS में शामिल हो गए हैं। वैसे भी इसी साल तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। चाहे राहुल गांधी पद पर बने रहे या फिर कोई और बागडोर संभाले, कांग्रेस के पास संगठन की मजबूती के लिए प्रभावी कदम उठाने के बाद वापसी का मौका होगा।.................(समाप्त)
राहुल सिंह शेखावत
टेलीविजन जर्नलिस्ट
9837706297, 9411198607
rahulshekhawat42@gmail.com
राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में हार की जिम्मेदारी की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद इस्तीफे की पेशकश कर दी है। जिसे उम्मीद कहें या रवायत के मुताबिक सदस्यों ने सिरे से नकार दिया। फिलहाल CWC ने पार्टी संगठन की मजबूती के लिए उन्हें आमूलचूल परिवर्तन के लिए अधिकृत कर दिया हैै। कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी संगठन का हाल ये है कि गुटबाजी के चलते कई राज्यों में तो उसकी कार्यकारिणी तक नहीं गठित हो पाई। लिहाजा, कांग्रेस की हार पार्टी कार्यकर्ताओं केे लिए सदमा हो सकती है, लेकिन अस्वाभाविक बिल्कुल नहीं। यक्ष प्रश्न ये है कि क्या राहुल अपने स्टैंड पर कायम रहेंगे या कांग्रेसी उन्हें त्यागपत्र वापसी के लिए मना लेंगे। अगर वो नहीं माने तो फिर नरेंद्रमोदी युग में कांग्रेस का वजूद बचाने वाला अगला खेवनहार कौन होगा।
क्या उसकी तलाश उस कांग्रेस के लिए आसान होगी, जो गांधी परिवार के नेतृत्व रूपी ऑक्सीजन के बिना हांफने लगती है। नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के दौर इसके उदाहरण हैं। उसी दौर में तिवारी कांग्रेस, मूपनार कांग्रेस और माधव राव सिंधिया की अलग कांग्रेस बनी थी। सवाल ये है कि कांग्रेस आखिर किस पर दांव लगाए? कैप्टनअमरिंदर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत सरीखे कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री 70 साल की उम्र वाले ग्रुप में हैं। खुद गहलोत राजस्थान में अपने बेटे वैभव को नहीं जीता पाए तो कमलनाथ अपने बेटे के अलावा मध्यप्रदेश में किसी और को नहीं जीता सके। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे अशोक चव्हाण, भूपिंदर हुड्डा, वीरप्पा मोईली, नबाम तुकी और हरीश रावत तक अपनी-अपनी लोकसभा सीटों पर चुनाव हार गए।
पार्टी की यूथ ब्रिगेड की फ्रंट लाइन में शुमार ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा, भंवर जीतेंद्र सिंह, खुद अपनी सीटें नहीं बचा पाए। अगर महिला नेत्रियों की बात करें तो कुमारी शैलजा और सुष्मिता देव चुनाव हार गईं। कभी कांग्रेस की अन्तरात्मा के वाहक रहे स्वर्गीय राजेश पायलट के पुत्र राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट बतौर प्रदेश अध्यक्ष राज्य में पार्टी के किसी एक प्रत्याशी को नहीं
जीता पाए। वैसे ये भी तथ्य गौर करने के लायक है कि उपरोक्त युवा नेताओं में अधिकांश वंशवाद के सहारे स्थापित हुए हैं। क्या इनमें अखिल भारतीय स्तर पर कार्यकर्ताओं में अलख जगाने की क्षमता है? अगर राहुल इस्तीफे पर अड़ ही जाते हैं तो इनसे अलग भी किसी और चेहरे पर विचार क्यों ना हो।
वैसे मोदी सरीखी बेहद मजबूत शख्सियत के खिलाफ नकारात्मक इलेक्शन कैंपेनिंग और कमजोर संगठन कांग्रेस की हार की बड़ी वजह रहीं। एक इस्तीफा और विलाप की रस्मअदायगी तो कतई भी कांग्रेस की बीमारी का हल नहीं है। बेहतर ये है कि इतना संघर्ष करने के बाद राहुल पद पर रहकर कांग्रेस का दीर्घकालीन ओवरहालिंग करें। नए भारत के मतदाताओं के दिल में जगह बनाने के लिए सबसे पहले एक खेप को मार्गदर्शकमंडल में भेजने का वक्त आ गया है। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो अब नए भुपेशबघेल तैयार करने होंगे। राहुल गांधी को भविष्य के मद्देनजर अशोकगहलोत, हरीशरावत और YSR रेड्डी सरीखे नए जमीनी नेता ढूंढकर तराशने पड़ेंगे। इनका जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि सभी ने जमीन से उठाकर अपना-अपना मुकाम हासिल किया।
कोई माने या ना माने लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने में गांधी परिवार के कथित वफादारों की अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। हाईकमान पर कुंडली मारे कथित वफादारों का घेरा कांग्रेस को पुराने फॉर्मेट से बाहर नहीं निकलने देता। जिनकी चापलूसी और चाटूकारिता के चलते 10 जनपथ और जमीन नेताओं में हमेशा दूरी रहती है। बची खुची कसर प्रणवमुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद पूरी हो गई। मानो कांग्रेस में राजनीतिक चातुर्य का तो अकाल ही पड़ गया। जहां मोदी-शाह की जोड़ी ने भारत की राजनीति के मायने ही बदल दिए, वहीं कांग्रेस में जनमानस की नब्ज पहचानने के चातुर्य एवं समझ का भारी टोटा है। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी पूरे चुनाव प्रचार में सिर्फ रॉफेल पर ही नहीं अटके रहते। इसके उलट मोदी ने मतदान के हर चरण में पब्लिक मूड को भांपते हुए प्रचार करके कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को घुटनों के बल लिटा दिया।
प्रणबदा राजनीतिक दलों की सीमाओं से ऊपर मौजूदा दौर में देश में सबसे ज्यादा सम्मानित और निर्विवाद शख्सियत हैं। ये तो कांग्रेस का सौभाग्य है कि वह उसके नेता रहे हैं। लिहाजा, राहुल गांधी के लिए उनसे पोलिटिकल क्लेवरनेस एंड हैंडलिंग के गुुर सीखने के लिए आगे आना चाहिए। कहा जाता है कि राहुल अनुभवी नेताओं की राय लेने में तो संकोच नहीं करते, लेकिन उसको लागू करने में ड्राइंगरूम एक्सपर्ट नेताओं अथवा सलाहकारों की एक के एक समूह पर निर्भर रहते हैं। दरअसल उनके चारों और विदेशों में बहुत ज्यादा पढ़े लिखे अथवा टेक्नोक्रेटस का घेरा है, जिसे सिरे से खत्म नहीं बल्कि कम करके जमीनी ऊर्जावान नेताओं को तरजीह देने की जरूरत है।
मेरे विचार से कांग्रेस को इस दयनीय स्थिति में पहुंचाने का दोषी अकेले राहुल गांधी को ठहराना भी कहीं ना कहीं उनके साथ घोर अन्याय है। इसकी बुनियाद तो तब पड़ी जब बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बहुत शक्तिशाली थी। कांग्रेस संजय गांधी के जेबी संगठन में तब्दील हो गई। उस दौर में चाटुकरिता एवं चापलूसी से स्थापित हुए नेता मौजूदा वक्त में ना सिर्फ पार्टी पर बोझ बल्कि दीमक समान हैं। इस क्लब के तमाम महानुभाव गांधी परिवार की वफादारी के नाम पर जमीनी नेताओं को धकियाकर हमेशा एक समानांतर पॉवर सेंटर बने रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई है कि सोनिया गांधी उन पर बहुत ज्यादा भरोसा करती हैं। जबकि राहुल चाहते हुए भी अभी तक उनसे पीछा छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का जन्म ही शरद पंवार के नेतृत्व में विदेशी मूल के नाम पर सोनिया गांधी के नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह के फलस्वरूप हुआ था। भला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग होकर पश्चिम बंगाल में तृणमूल क्यों बनी? और आंध्र प्रदेश में YSR कांग्रेस बनने के लिए जिम्मेदार कौन है? और जब कांग्रेस से अलग होकर ये पार्टियां बन रही थीं तो क्या सोनिया राज में उसे रोकने के कितने गम्भीर प्रयास हुए थे? आंध्र प्रदेश के तत्कालीन करिश्माई मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी (YSR) की मौत के बाद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की महत्वाकांक्षाएं हिलौरे ले रही थी। लेकिन वफादारी के नाम पर जनाधारविहीन रौसय्या को मुख्यमंत्री बनाने का गलत फैसला लिया गया। फिर जगन के बढ़ते जनाधार को काउंटर करने के लिए रौसय्या को हटाकर किरण रेड्डी को कमान दी गई। उन हालातों के बीच जगन ने पार्टी से विद्रोह करके YSR कांग्रेस के रूप में एक अलग पार्टी बना ली। 2014 के चुनावों की आहट के बीच यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में तेलंगाना राज्य का गठन हुआ। जिसके खिलाफ उभरे जनाक्रोश के मद्देनजर किरण ने भी कांग्रेस छोड़कर अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी।
इन सारे घटनाक्रमों के सिर्फ पांच साल बाद अब 2019 में जगन आंध्र के मुख्यमंत्री बन गए हैं।और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार ना तो लोकसभा और ना विधानसभा में जीतकर पहुंचने में सफल हो पाया। ये वही आन्ध्र प्रदेश है, जहां YSR रेड्डी ने मुख्यमंत्री रहते हुए 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनाने और फिर 2009 दूसरी को मजबूती देने के लिए एकतरफा सीटें जीताकर कर दीं। मतलब कांग्रेस की आंध्र प्रदेश में स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि पहले तो सिर पिटा और फिर घर भी लुट गया। क्या इसके लिए सोनिया गांधी अथवा उनके सलाहकार जवाब देने की स्थिति में हैं? शायद नहीं।
कभी मराठा क्षत्रप शरद पंवार ने सोनिया के विदेशी मूल के खिलाफ हल्ला बोल करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली थी। लेकिन, उन्होंने 2004 में UPA के गठन के वक्त उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद कभी दोनों पार्टियों के विलय के प्रयास नहीं हुए। जबकि महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी न सिर्फ मिलकर चुनाव लड़ते हैं बल्कि 10 सरकार साथ चलाई। दरअसल, सोनिया बतौर अध्यक्ष कांग्रेस के लिए एक अच्छी कोऑर्डिनेटर साबित हुईं। गांधी परिवार की विरासत और अपने चातुर्य के दम पर क्षेत्रीय दलों को UPA नामक छतरी में लाकर लगातार दो बार सरकार बनवाने में कामयाब रही। लेकिन, वो कांग्रेस संगठन को अपेक्षित मजबूती देने में नाकाम रही।
मौजूदा दौर में मोदी-शाह की जोड़ी ने राजनीतिक हार-जीत के नए पैमाने तय कर दिए हैं। लिहाजा उन कांग्रेसियों को "करिश्मे" की आस की आदत छोड़कर निश्चय के साथ जमीन पर काम करने की आदत डाल लेनी चाहिए, जो सोनिया-राहुल के बाद अब प्रियंका गांधी में कांग्रेस का भविष्य तलाशने की मृगतृष्णा पाले हैं। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित होना है तो दो लगातार सबसे शर्मनाक हार के बाद अहसास कर लेना चाहिए कि हर चीज "एक्सपायरी डेट" होती है।
सनद रहे कि कांग्रेस का संकट सिर्फ उसके लचर संगठन तक सीमित नहीं है। उसकी सबसे बड़ी चुनौती नए भारत का वो युवा मतदाता को आकर्षित करना है, जिसने पहले बतौर प्रधानमंत्री सिर्फ "शांत" डॉ मनमोहन सिंह के 10 साल देखे। उसके बाद अति सक्रिय "शोमैन" नरेंद्र मोदी के पांच साल का कार्यकाल देखकर तुलनात्मक रूप से अपने मनमानस में कांग्रेस की एक छवि गढ़ी है। मोदी देश में अपने हिसाब से राष्ट्रवाद का "नैरेटिब" गढ़ जनमानस को खुद की तरफ खींचने में कामयाब रहे हैं। जिसका मुुकाबला करने के लिए कांग्रेस को वैचारिक भ्रम या कहें दुर्बलता को दूर कर स्पष्ट लाइन पकड़नी होगी।
फिलहाल कांग्रेस में राहुल गांधी को पद पर बनाए रखने के लिए पदाधिकारीयों के इस्तीफा देने का दौर चल रहा है। सनद रहे कि 2014 की स्थिति लंबी ना रहे जब हार के बाद राहुल की ताजपोशी तक एक निष्क्रियता रही। इस बीच कांग्रेस की मौजूदा उहांपोह की स्थिति में तेलंगाना के एक दर्जन विधायक सत्ताधारी TRS में शामिल हो गए हैं। वैसे भी इसी साल तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। चाहे राहुल गांधी पद पर बने रहे या फिर कोई और बागडोर संभाले, कांग्रेस के पास संगठन की मजबूती के लिए प्रभावी कदम उठाने के बाद वापसी का मौका होगा।.................(समाप्त)
राहुल सिंह शेखावत
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