Monday, July 1, 2019

कांग्रेस हार के डरावने भूत से कैसे पीछा छुड़ाएगी?

17 वी लोकसभा के चुनाव में "द ग्रेट ग्रांड ओल्ड पार्टी" भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की करारी हार हुई है।उसे पिछले चुनाव में  न्यूनतम 44 सीटें मिली थी, तो इस बार भी सिर्फ 52 सीटें जीत पाई। जबकि नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा ने पिछली बार के 282 के रिकॉर्ड तोड़कर 303 सीटें जीतने का अकल्पनीय कीर्तिमान बना दिया। कांग्रेस की शर्मनाक हार का आलम ये रहा कि केंद्रशासित मिलाकर देश के डेढ़ दर्जन से ज्यादा राज्यों में उसका खाता भी नहीं खुल पाया। इतना ही नहीं, खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी में चुनाव हार गए। मतलब 2014 के चुनावों में सोनिया गांधी और अब 2019 में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की लगातार दूसरी सबसे बड़ी हार के बाद गांधी परिवार का करिश्मा ही सवालों के घेरे में आ गया है। बड़ा सवाल ये है कि अब कांग्रेस हार के डरावने भूत से कैसे पीछा छुड़ाएगी?

राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में हार की जिम्मेदारी की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद इस्तीफे की पेशकश कर दी है। जिसे उम्मीद कहें या रवायत के मुताबिक सदस्यों ने सिरे से नकार दिया। फिलहाल CWC ने पार्टी संगठन की मजबूती के लिए उन्हें आमूलचूल परिवर्तन के लिए अधिकृत कर दिया हैै। कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी संगठन का हाल ये है कि गुटबाजी के चलते कई राज्यों में तो उसकी कार्यकारिणी तक नहीं गठित हो पाई। लिहाजा,  कांग्रेस की हार पार्टी कार्यकर्ताओं केे लिए सदमा हो सकती है, लेकिन अस्वाभाविक बिल्कुल नहीं। यक्ष प्रश्न ये है कि क्या राहुल अपने स्टैंड पर कायम रहेंगे या कांग्रेसी उन्हें त्यागपत्र वापसी के लिए मना लेंगे। अगर वो नहीं माने तो फिर नरेंद्रमोदी युग में कांग्रेस का वजूद बचाने वाला अगला खेवनहार कौन होगा।

क्या उसकी तलाश उस कांग्रेस के लिए आसान होगी, जो गांधी परिवार के नेतृत्व रूपी ऑक्सीजन के बिना हांफने लगती है। नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के दौर इसके उदाहरण हैं। उसी दौर में तिवारी कांग्रेस, मूपनार कांग्रेस और माधव राव सिंधिया की अलग कांग्रेस बनी थी। सवाल ये है कि कांग्रेस आखिर किस पर दांव लगाए?  कैप्टनअमरिंदर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत सरीखे कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री 70 साल की उम्र वाले ग्रुप में हैं। खुद गहलोत राजस्थान में अपने बेटे वैभव को नहीं जीता पाए तो कमलनाथ अपने बेटे के अलावा  मध्यप्रदेश में किसी और को नहीं जीता सके। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे अशोक चव्हाण, भूपिंदर हुड्डा, वीरप्पा मोईली, नबाम तुकी और हरीश रावत तक अपनी-अपनी लोकसभा सीटों पर चुनाव हार गए।


पार्टी की यूथ ब्रिगेड की फ्रंट लाइन में शुमार ज्योतिरादित्य  सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा, भंवर जीतेंद्र सिंह, खुद अपनी सीटें नहीं बचा पाए। अगर महिला नेत्रियों की बात करें तो कुमारी शैलजा और सुष्मिता देव चुनाव हार गईं। कभी कांग्रेस की अन्तरात्मा के वाहक रहे स्वर्गीय राजेश पायलट के पुत्र राजस्थान के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट बतौर प्रदेश अध्यक्ष  राज्य में पार्टी के किसी एक प्रत्याशी को नहीं
जीता पाए। वैसे ये भी तथ्य गौर करने के लायक है कि उपरोक्त युवा नेताओं  में अधिकांश वंशवाद के सहारे स्थापित हुए हैं। क्या इनमें अखिल भारतीय स्तर पर कार्यकर्ताओं में अलख जगाने की क्षमता है? अगर राहुल इस्तीफे पर अड़ ही जाते हैं तो इनसे अलग भी किसी और चेहरे पर विचार क्यों ना हो।

वैसे मोदी सरीखी बेहद मजबूत शख्सियत के खिलाफ नकारात्मक इलेक्शन कैंपेनिंग और कमजोर संगठन कांग्रेस की हार की बड़ी वजह रहीं। एक इस्तीफा और विलाप की रस्मअदायगी तो कतई भी कांग्रेस की बीमारी का हल नहीं है। बेहतर ये है कि इतना संघर्ष करने के बाद राहुल पद पर रहकर कांग्रेस का दीर्घकालीन ओवरहालिंग करें। नए भारत के मतदाताओं के दिल में जगह बनाने के लिए सबसे पहले एक खेप को मार्गदर्शकमंडल में भेजने का वक्त आ गया है। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो अब नए भुपेशबघेल तैयार करने होंगे। राहुल गांधी को भविष्य के मद्देनजर अशोकगहलोत, हरीशरावत और YSR रेड्डी सरीखे नए जमीनी नेता ढूंढकर तराशने पड़ेंगे। इनका जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि सभी ने जमीन से उठाकर अपना-अपना मुकाम हासिल किया।

कोई माने या ना माने लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने में गांधी परिवार के कथित वफादारों की अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। हाईकमान पर कुंडली मारे कथित वफादारों का  घेरा कांग्रेस को पुराने फॉर्मेट से बाहर नहीं निकलने देता। जिनकी चापलूसी और चाटूकारिता के चलते 10 जनपथ और जमीन नेताओं में हमेशा दूरी रहती है। बची खुची कसर प्रणवमुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद पूरी हो गई। मानो कांग्रेस में राजनीतिक चातुर्य का तो अकाल ही पड़ गया। जहां मोदी-शाह की जोड़ी ने भारत की राजनीति के मायने ही बदल दिए, वहीं कांग्रेस में जनमानस की नब्ज पहचानने के चातुर्य एवं समझ का भारी टोटा  है। अगर ऐसा नहीं होता तो राहुल गांधी पूरे चुनाव प्रचार में सिर्फ रॉफेल पर ही नहीं अटके रहते। इसके उलट मोदी ने मतदान के हर चरण में पब्लिक मूड को भांपते हुए प्रचार करके कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष को घुटनों के बल लिटा दिया।


प्रणबदा राजनीतिक दलों की सीमाओं से ऊपर मौजूदा दौर में  देश में सबसे ज्यादा सम्मानित और निर्विवाद शख्सियत हैं। ये तो कांग्रेस का सौभाग्य है कि वह उसके नेता रहे हैं। लिहाजा, राहुल गांधी के लिए उनसे पोलिटिकल क्लेवरनेस एंड हैंडलिंग के गुुर सीखने के लिए आगे आना चाहिए।  कहा जाता है कि राहुल अनुभवी नेताओं की राय लेने में तो संकोच नहीं करते, लेकिन उसको लागू करने में ड्राइंगरूम एक्सपर्ट नेताओं अथवा सलाहकारों की एक के एक समूह पर निर्भर रहते हैं। दरअसल उनके चारों और विदेशों में बहुत ज्यादा पढ़े लिखे अथवा टेक्नोक्रेटस का घेरा है, जिसे सिरे से खत्म नहीं बल्कि कम करके जमीनी ऊर्जावान नेताओं को तरजीह देने की जरूरत है।

मेरे विचार से कांग्रेस को इस दयनीय स्थिति में पहुंचाने का दोषी अकेले राहुल गांधी को ठहराना भी कहीं ना कहीं उनके साथ घोर अन्याय है।  इसकी बुनियाद तो तब पड़ी जब बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बहुत शक्तिशाली थी। कांग्रेस संजय गांधी के जेबी संगठन में तब्दील हो गई। उस दौर में चाटुकरिता एवं चापलूसी से स्थापित हुए नेता मौजूदा वक्त में ना सिर्फ पार्टी पर बोझ बल्कि दीमक समान हैं। इस क्लब के तमाम महानुभाव गांधी परिवार की वफादारी के नाम पर जमीनी नेताओं को धकियाकर हमेशा एक समानांतर पॉवर सेंटर बने रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई है कि सोनिया गांधी उन पर बहुत ज्यादा भरोसा करती हैं। जबकि राहुल चाहते हुए भी अभी तक उनसे पीछा छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का जन्म ही शरद पंवार के नेतृत्व में विदेशी मूल के नाम पर सोनिया गांधी के नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह के फलस्वरूप हुआ था। भला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग होकर पश्चिम बंगाल में तृणमूल क्यों बनी? और आंध्र प्रदेश में YSR कांग्रेस बनने के लिए जिम्मेदार कौन है? और जब कांग्रेस से अलग होकर ये पार्टियां बन रही थीं तो क्या सोनिया राज में उसे रोकने के कितने गम्भीर प्रयास हुए थे? आंध्र प्रदेश के तत्कालीन करिश्माई मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी (YSR) की मौत के बाद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की महत्वाकांक्षाएं हिलौरे ले रही थी। लेकिन वफादारी के नाम पर जनाधारविहीन रौसय्या को मुख्यमंत्री बनाने का गलत फैसला लिया गया। फिर जगन के बढ़ते जनाधार को काउंटर करने के लिए रौसय्या को हटाकर किरण रेड्डी को कमान दी गई। उन हालातों के बीच जगन ने पार्टी से विद्रोह करके YSR कांग्रेस के रूप में एक अलग पार्टी बना ली। 2014 के चुनावों की आहट के बीच यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में तेलंगाना राज्य का गठन हुआ। जिसके खिलाफ उभरे जनाक्रोश के मद्देनजर किरण ने भी कांग्रेस छोड़कर अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी।

इन सारे घटनाक्रमों के सिर्फ पांच साल बाद अब 2019 में जगन आंध्र के मुख्यमंत्री बन गए हैं।और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार ना तो लोकसभा और ना विधानसभा में जीतकर पहुंचने में सफल हो पाया। ये वही आन्ध्र प्रदेश है, जहां YSR रेड्डी ने मुख्यमंत्री रहते हुए 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनाने और फिर 2009 दूसरी को मजबूती देने के लिए एकतरफा सीटें  जीताकर कर दीं।  मतलब  कांग्रेस की आंध्र प्रदेश में स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि पहले तो सिर पिटा और फिर घर भी लुट गया। क्या इसके लिए सोनिया गांधी अथवा उनके सलाहकार जवाब देने की स्थिति में हैं? शायद नहीं।

कभी मराठा क्षत्रप शरद पंवार ने सोनिया के विदेशी मूल के खिलाफ हल्ला बोल करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली थी। लेकिन, उन्होंने 2004 में UPA के गठन के वक्त उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। इसके  बावजूद कभी दोनों पार्टियों के विलय के प्रयास नहीं हुए। जबकि महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी न सिर्फ मिलकर चुनाव लड़ते हैं बल्कि 10 सरकार साथ चलाई। दरअसल, सोनिया बतौर अध्यक्ष कांग्रेस के लिए एक अच्छी कोऑर्डिनेटर साबित हुईं। गांधी परिवार की विरासत और अपने चातुर्य के दम पर क्षेत्रीय दलों को UPA नामक छतरी में लाकर लगातार दो बार सरकार बनवाने में कामयाब रही। लेकिन, वो कांग्रेस संगठन को अपेक्षित मजबूती देने में नाकाम रही।

मौजूदा दौर में मोदी-शाह की जोड़ी ने राजनीतिक हार-जीत के नए पैमाने तय कर दिए हैं। लिहाजा उन कांग्रेसियों को "करिश्मे" की आस की आदत छोड़कर निश्चय के साथ जमीन पर काम करने की आदत डाल लेनी चाहिए, जो सोनिया-राहुल के बाद अब प्रियंका गांधी में कांग्रेस का भविष्य तलाशने की मृगतृष्णा पाले हैं। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित होना है तो दो लगातार सबसे शर्मनाक हार के बाद अहसास कर लेना चाहिए कि हर चीज "एक्सपायरी डेट" होती है।

सनद रहे कि कांग्रेस का संकट सिर्फ उसके लचर संगठन तक सीमित नहीं है। उसकी सबसे बड़ी चुनौती नए भारत का वो युवा मतदाता को आकर्षित करना है, जिसने  पहले बतौर प्रधानमंत्री सिर्फ "शांत" डॉ मनमोहन सिंह के 10 साल देखे। उसके बाद अति सक्रिय "शोमैन" नरेंद्र मोदी के पांच साल का कार्यकाल  देखकर तुलनात्मक रूप से अपने मनमानस में कांग्रेस की एक छवि गढ़ी है। मोदी देश में अपने हिसाब से राष्ट्रवाद का "नैरेटिब" गढ़ जनमानस को खुद की तरफ खींचने में कामयाब रहे हैं। जिसका मुुकाबला करने के लिए कांग्रेस को वैचारिक भ्रम या कहें दुर्बलता को दूर कर स्पष्ट लाइन पकड़नी होगी।

फिलहाल कांग्रेस में राहुल गांधी को पद पर बनाए रखने के लिए पदाधिकारीयों के इस्तीफा देने का दौर चल रहा है।  सनद रहे कि 2014 की स्थिति लंबी ना रहे जब हार के बाद राहुल की ताजपोशी तक एक निष्क्रियता रही। इस बीच कांग्रेस की मौजूदा उहांपोह की स्थिति में तेलंगाना के एक दर्जन विधायक सत्ताधारी TRS में शामिल हो गए हैं। वैसे भी इसी साल तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। चाहे राहुल गांधी पद पर बने रहे या फिर कोई और बागडोर संभाले, कांग्रेस के पास संगठन की मजबूती के लिए प्रभावी कदम उठाने के बाद वापसी का मौका होगा।.................(समाप्त)

राहुल सिंह शेखावत
टेलीविजन जर्नलिस्ट
9837706297, 9411198607
rahulshekhawat42@gmail.com

Saturday, June 8, 2019

प्रकाशदा आपको स्वर्गीय मानने के लिए मन को बहलाने में समय लगेगा




ये फोटो पिछले साल की है, जब पूर्ववर्ती चैनल के लिए उनका इंटरव्यू करने के बाद फ्री हुआ था। दरअसल, कंठस्थ आंकड़ों के साथ जवाब देने के लिए मशहूर वित्तमंत्री Prakash Pant  किसी एक मामले पर अपडेट नहीं थे। जैसे ही इंटरव्यू खत्म हुआ मैंने सम्बंधित सवाल का जिक्र किया। पहले प्रकाश दा ने कहा नहीं-नहीं, फिर सहमत होते हुए बोले नए आंकड़े आ गए पता नहीं यार कैसे मैं ध्यान नहीं दे पाया।

फिर मैं उनसे आदतन मजाकिया लहजे में बोला कि दाज्यू  दुनिया चांद पर पहले पहुँच गई और मंगल ग्रह पर कब्जा करने की तैयारी में है और आप पुराने आंकड़ों में अटके हो। उसके बाद प्रकाश पंत अपनी निश्छलता के साथ जोर से हंसे औऱ मैं अपने चिर परिचित ठहाकों के साथ। उसी हंसी-ठिठौली के बीच क्लिक हुए इन चित्रों को मैंने अपलोड नहीं किया था। लेकिन मुझे इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि वो इतनी जल्दी और इस तरह रुख्सत हो जाएंगे।

अब मन कचौट रहा रहा है कि काश उसी दिन ये फोटो चस्पा कर दिए होते क्या पता आज के हालात न होते-खैर। ये कहना महज एक औपचारिकता भर है कि वित्त मंत्री रहे  Prakash Pant की असमय मौत उत्तराखंड की राजनीति के लिए एक बड़ा नुकसान है। दरअसल, उनके देहांत से उत्तराखंड में जीवंत प्रेरणा का एक अध्याय खत्म हो गया।

फार्मेसिस्ट रहे पंत MLC निर्वाचित होने के बमुश्किल दो साल बाद ही अंतरिम विधानसभा में स्पीकर बन गए थे। उसके बाद वो न सिर्फ एक सफल मंत्री बल्कि तीन मुख्यमंत्रीयों के सदन में "परफेक्ट फ्लोर मैनेजर" साबित हुए। मुझे लगता है कि पंत ने स्पीकर के तौर पर मिली एक बड़ी चुनौती को अपनी कुशलता और कर्मठता से खुद को राजनेता के तौर पर तराशने के एक अवसर में तब्दील कर दिया।

जहां उत्तराखंड में एक्सपोजर के अभाव नेतानगरी प्रभावहीन रही, वहीं मृदु भाषी पंत अपनी सहजतापूर्ण और संजीदा कार्यशैली से उम्मीदों के प्रकाश बनते गए। यही वो वजह है कि पंत दो बार मुख्यमंत्री की रेस में सुमार रहे। आंकड़े वाले वाकये का जिक्र इसलिए किया क्योंकि प्रकाश पंत की कोई उल्लेखनीय एजुकेशन अथवा बड़ी राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। लेकिन उन्होंने पढ़कर एवं रटकर खुद को संसदीय एवं विधायी विशेषज्ञ के रूप में उस सदन के लिए तैयार किया, जिसकी नुमाइंदगी स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी, डॉ इंदिरा हृदयेश और मुन्ना सिंह चौहान सरीखे दक्ष लोग करते रहे हो।

एक दिन अचानक प्रकाश पंत ने फोन करके पूछा कि घर आ सकते हो क्या?  मैं बोला थोड़ा काम निपटा लूं फिर आने की कोशिश करता हूं। ये उस वक्त का एक वाकया है जब प्रकाशदा चुनाव हार गए थे। बहरहाल, मैं गया और दुआ-सलाम करते ही उन्होंने  मेरे हाथ मे "एक थी कुसुम" नामक किताब थमा डाली। दरअसल, पंत जी ने ना जाने कैसे उस रोज मेरे ब्लॉग पर मेरी एक कहानी "वो विधवा थी, या सुहागिन" पढ़ी थी।

उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका कथानक काल्पनिक रहता है या सत्य घटनाओं पर आधारित। मैंने कहा कि सिर्फ सामने या आस पास या सामने घटित  घटनाक्रमों पर ही यदा कदा अंतर्मन की वेदना को उकेर देता हूँ। फिर पंत जे बोले  इसे फुर्सत में पड़ना क्योंकि मेरी किताब भी ऐसी ही वेदनाओं पर आधारित है।  मैं बोला ठीक छू।

बहरहाल, मैंने प्रकाश पंत के इलाज के लिए अमेरिका जाने से कुछेक दिन पहले  Manoj Anuragi को फोन करके कुशलक्षेम जानते हुए पूछा कि भाई साहब कहां मिलेंगे। वो एक घण्टे तक सरकारी आवास पर हैं, लेकिन जाम के झाम से निकलकर जब तक पहुंचा वो घर निकल चुके थे। चूंकि मुझे उसी शाम को लखनऊ निकलना था। लिहाजा मैंने उनके सहयोगी Pawan Chaudhary को फोन किया।  वो बोले आप तो घर जा सकते हो लेकिन बुके मत ले जाना क्योंकि डॉक्टरों ने मना किया है।

उसके बाद विजयनगर कॉलोनी स्थित उनके निजी आवास पर गया और मुलाकात हुई। मैंने पूछा दा क्या हुआ तो बोले यार निमोनिया बिगड़ गया है। तभी भाभी आ गई और चिरपरिचित मुस्कराहट के साथ बोली आज आप जमाने बाद आए हो। पंत जी बातचीत में तो सामान्य ही थे लेकिन ना जाने क्यों कुछ खोये से लग रहे थे।  कर्मकांडी नहीं होने के बावजूद  अनायास मेरे मुंह से निकला कि दाज्यू जब तबीयत सही हो जाए तो एक बार रणथंभौर  में जाकर ढोक दे आना।

पंत जी ने पूछा वहाँ क्या है तो मैंने बताया कि किले के टॉप पर मन्नत वाला बिना सूंड वाले गणेश जी का इकलौता मंदिर है। मैंने उन्हें बताया की राजस्थान के सवाईमाधोपुर में  जिसके पास रणथंभौर स्थित है और मैं वहाँ पढ़ा हूं। पंत जी अपनी धर्म पत्नी से बोले इसको लिख लो तो जरा। फिर बोले आप भी साथ चलोगे मैं बोला पक्का। लेकिन प्रकाशदा तो अपना वादा तोड़कर अब कहीं और ही चल दिए।

पंत जी आप जहां भी रहोगे मुस्कराते हुए उम्मीदों का प्रकाश फैलाते रहोगे। और हां सब कुछ जानने के बावजूद भी आपको स्वर्गीय लिखने के लिए मन को बहलाने में समय लगेगा।

Saturday, December 16, 2017

राहुल गांधी के सामने कांग्रेस को बुरे दौर से उबारने की चुनौती

राहुल सिंह शेखावात

आखिरकार राहुल गांधी 132 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विधिवत रूप से राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या मोदी मैजिक में भगवा हो चुके हिंदुस्तान में वो अपनी पार्टी का वजूद बचाने में सफल हो पाएंगे।
जहां एक ओर राहुल के सामने हार दर हार से मायूस कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने की बडी चुनौती है।  वहीं दूसरी ओर नेहरू गांधी खानदान के इस छठे वारिश को, नई सोच के साथ भारतीय जनमानस में जगह बना देश का सर्वमान्य नेता बनने के लिए जूझना होगा।
और अगर राहुल गांधी अपने नेतृत्व में हार का सिलसिला नहीं तोड पाए तो  खुद उनके और पार्टी दोनों के सामने इतिहास बनने की आंशका बनी रहेगी।  
 पं मोती लाल नेहरू, पं जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीवगांधी, सोनिया गांधी के बाद, अब राहुल गांधी ने 132 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व संभाल लिया है।  
जिसके बाद कांग्रेस मुख्यालय समेत देश भर में पार्टी कार्यकर्ताओं का जश्न में डूबना लाजमी है। लेकिन राहुल बाबा ने उस वक्त कांग्रेस की बागडोर संभाली है, जबकि हिंदुस्तान का सियासी नक्शा पूरी तरह से भगवा रंग में  रंगने को तैयार है।   
कर्नाटक और पंजाब समेत कुल जमा 6 राज्यों को छोडकर बाकी सभी राज्यों में बीजेपी या उसके गठंबधन की सरकारें हैं। कांग्रेस के  सामने संकट ये है कि समूची हिंदी बेल्ट से उसका सफाया हो चुका है।
2019 के महारण की बिसात नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मैजिक जोडी ने अभी से इस कदर बिछा दी है कि  गुजरात के हालिया चुनाव प्रचार में कांग्रेस को देश का बताना पडा कि राहुल गांधी शिवभक्त और जनेउधारी हिंदू हैं।  इसको यूं भी कह सकते हैं कि अब सिर्फ नेहरू गांधी की विरासत के आधार पर अब चुनाव नहीं जीता जा सकता है।   जिसका राहुल गांधी को बखूबी इल्म है और शायद इसलिए उन्होंने अध्यक्ष पद संभालने के बाद बिना मोदी शाह का लिए कहा कि वो देश में आग लगा रहे हैं।  लेकिन कांग्रेसियों को उसे बुझाने का काम करना है।
 कहने की जरूरत नहीं है कि डा मनमोहन सिंह के रूप में यूपीए सरकार का लगातार दस साल नेतृत्व संभालने के बाद कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमटने के बाद एक एक कर राज्यों में चुनाव हारती गई। और अब कांग्रेस मोदी राज में बंजर हो रही अपनी सियासी जमीन को राहुल गांधी के नेतृत्व में 2019 में उपजाउ बनाने का सपना देख रही है। सवाल ये उठता है कि क्या ये सब इतना आसान होगा।
एक बाद एक करारी हार के बाद कार्यकर्ताओं में मायूसी छा गई और अगर गुजरात हिमाचल में हार मिलती है तो फिर कहां से उत्साह पैदा करेंगे?
मोदी के मोहपाश में कैद युवाओं को उससे बाहर लाकर कांग्रेस से जोडने का राहुल गांधी के पास नुस्खा क्या होगा!
अतीत इस बात का गवाह है जिन राज्यों में भी कांग्रेस तीसरे नंबर पर खिसकी फिर उपर नहीं उठ पाई और अब बीजेपी वहां पांव पसारने लगी है उससे निपटने का राहुल के पास क्या ब्लूप्रिंट है?
जिस तरह से उन्होंने यूपी में अखिलेश यादव से समझौता किया क्या उसी तर्ज पर महाराष्ट्र में शरद पंवार समेत अन्य लोगों से भविष्य में हाथ मिलाएंगे?
राहुल गांधी के बनने के बाद क्या प्रियंका बाड्रा को कोई उपयोग करेंगे?भाजपा में हाशिए पर चल अपने चचेरे भाई वरूण गांधी पर डोरे डालेंगे!
राहुल बाबा की टीम में पुराने,अनुभवी और खास तौर पर सोनिया के वफादार लोगों की कोई भूमिका होगी!
क्या फकत राहुल गांधी के मंदिर दर्शन भर से कांग्रेस मोदी शाह के हिंदू एजेंडा का सामना कर पाएंगे !
और वोटरों के दिमाग पर छाए मोदी के नशे को उतारकर भारतीय जनमानस के अंर्तमन में घुसने का कोई तरीका ढूंढा है!
और भी कई सवाल हो सकते हैं लेकिन कांग्रेसियों के लिए तो राहुल गांधी की ताजपोशी जश्न मना भविष्य की उम्मीद बढाने के लिए काफी है।लेकिन अब भी भाजपा में ऐसे नेता हैं जो कि राहुल गांधी को लेकर तंज कस चुटकी लेने  में पीछे नहीं है।
बहरहाल,  मोतीलाल से लेकर सोनिया तक नेहरू गांधी परिवार ने करीब 43 साल तक कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। अब राहुल बाबा की बारी है वो भी तब जबकि कांग्रेस अपने सबसे बडे संकट के दौर से गुजर रही है।
लेकिन जिस तरह से उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ गुजरात चुनाव में चुनाव प्रचार किया और मोदी शाह ने उन्हें टारगेट किया, उसमे कहीं ना कहीं राहुलइफेक्ट तो साफ तौर पर झलकाता है।
अब ये भविष्य तय करेगा कि क्या राहुल गांधी मोदी राज में अपनी पार्टी का वजूद बचाकर एक नया इतिहास रचने में सफल हो पाएंगे या नहीं।

Sunday, November 17, 2013

मुझे तेंदूलकर विरोधी अथवा फ्रस्टेट भारतीय न समझें...............

सारी मेजर ध्यान चंद्र जी, आपकी हाकी की जादूगरी की तानासाह हिटलर को कद्र थी, लेकिन न जाने क्यों लोकतांति्रक हिंदुस्तान के हुक्मरानों के दिल में आपके लिए जगह नहीं है....लेकिन सचिन तेंदूलकर ने पिछले 24 सालों तक खेली कि्रकेट में हर असंभव सपने को साकार किया.... लिहाजा न सिर्फ तेंदूलकर बलिक इस कोहिनूर को जन्म देने वाली उनकी नहीं, हम सबकी भारत रत्न मां की कोख को मेरा सलाम....आज के इस महान कि्रकेटर को देखकर सीना चौड़ा हो रहा है....लेकिन हाकी के बीते स्वर्णिम युग को याद करके तकलीफ भी.....कोर्इ बुरार्इ नहीं थी अगर मौजूदा जज्बातों के समुंदर में गोते लगाने के साथ, अतीत के दरिया में लगार्इ डूबकी की यादें भी ताजा कर ली गर्इ होती.....आज तो नहीं लेकिन हो सकता है कि आने वाले कल ये बात आप सोचने पर मजबूर हों....वैसे अतीत इस बात का गवाह है कि इतिहास बनने और लिखने के बाद ही उस पर ही उस पर बहस होती है....मुझे पहली बार अहसास हुआ कि वास्तव में सचिन तेंदूलकर कि्रकेट नहीं बलिक आजादी के बाद लोकतांति्रक बने हिंदुस्तान के साक्षात भगवान हैं...... वरना मुल्क में आम चुनावों की बह रही बयार के बीच केंद्र सरकार भारत रत्न के परम्परागत ढ़र्रे से उपर उठकर नहीं सोचती....सचिन आप रिकार्ड बनाने के लिए ही धरती पर अवतरित हुए थे....22 गज की कि्रकेट पिच छोड़ते ही रिकार्डवीर भारतीय की गोद में एक नया रिकार्ड आ गया-भारत रत्न....सचिन तेंदूलकर आप संकोची हो और आपके साफ दिल एवं सौम्यता की कसमें खार्इ जा सकती हैं....लेकिन पालीटिकल पिच के घाघ प्रबधंकों ने अप्रत्यक्ष तौर पर एक अन्याय भी कर दिया....और सचिन वो भी आपके मैराथन कि्रकेट सफर की अंतिम पारी के दिन ....बहरहाल हाकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद सबके दादा हैं, लिहाज वह भी अपने भारत रत्न पर फक्र ही कर रहेंगे....वजह ये कि हिंदुस्तान की हकूमत ने पहली बार किसी एक खिलाड़ी सर्वोच्च सम्मान के लायक समझा है.... वेलडन सचिन और हार्डलक दादा.... अंत में आप सबसे अनुरोध है कि मुझे तेंदूलकर विरोधी अथवा फ्रस्टेट भारतीय न समझें...............



Sunday, May 19, 2013

फकत कुछ हासिल ही करने से दूर रही खवाहिशे मेरी



फकत कुछ हासिल ही करने से दूर रही खवाहिशे मेरी
वो भी कभी नहीं चाहा अमूमन जिसकी चाह लोग रखते हैं
रिश्तों को स्वार्थ के चस्मे से भी कभी नहीं देखा मैंने
न जाने फिर भी क्यों लोगों को गलतफहमी हो जाती है
हमेशा ही खुद को भूलाकर ही रिश्तांे को सहेजता रहा
स्वार्थ इतना था कि उनकी अपनेपन की कमी दूर हो जाए
लेकिन न जाने क्यूं उन्हें करीबीयां ही खटकने लगी हैं
न जाने क्यों हकीकत से कहीं दूर रही हैं ख्वाहिशें मेरी
फिर भी ख्वाहिश है कि ये ख्वाब हकीकत हो जाए
उन्हें इल्म होगा कि मेरा जुर्म कुछ और नहीं महज अपनापन है

Sunday, April 21, 2013

तो ये देवभूमि उत्तराखण्ड के सैक्सी आईकन हैं....



आमतौर पर नैनीताल में रहते हुए अपने ब्लाग पर निरंतर लिखता था। लेकिन न जाने क्यों पिछले साल उस षहर को छोड़ने के बाद लेखनी लगभग थम सी गई। लेकिन हाल ही में उत्तराखण्ड के नेता विपक्ष अजय भट्ट की पत्रकार वार्ता ने मुझे लिखने को प्रेरित कर दिया। मैं अब कोषिष करूंगा कि पहले की तरह लिखता रहूं।

दरअसल, उत्तराखण्ड के एक कैबिनेट मंत्री पर एक बिनव्याही मां के बच्चे का पिता होने की चरचा सुर्खियों में है। बताया जा रहा है कि संबधित युवति ने दिल्ली में किसी अस्पताल में बच्चे को जन्म दिया। अजय भट्ट का कहना है कि स्थानीय और बाहर के नेता चुटकी लेकर इस मुद्दे के बारे में पूछ रहे हैं।

उनका कहना था कि इस मामले में उत्तराखण्ड के एक कैबिनेट मंत्री का नाम उछला है। लेकिन बेवजह सी.एम. विजय बहुगुणा और दो महिला मंत्रियों को छोड़कर बाकी सभी 9 मंत्रियों की देषभर में बदनामी हो रही है। भट््ट ने बकायदा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से इस मामले की जांच की मांग कर डाली।

यूं तो सियासत और सैक्स के काकटेल में कोई नयापन नहीं है। राजस्थान के तत्कालीन मंत्री मदेरणा का सैक्स प्रकरण मीडिया के जरिये खूब चरचा में रहा था। कर्नाटक मंे कुछ विधायक मन में राम और मोबाईल में छोरी के लिए चर्चित हुए। दरअसल, संस्कृृति का ठेका लेने वाली बीजेपी के वो विधायक विधानसभा परिसर में मोबाईल में पोर्न वीडियो देखते पकड़े गए थे।

लेकिन, 86 साल की उम्र में पिता बनकर कांग्रेस के दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखण्ड को देष ही नहीं दुनिया में सुर्खियों में ला दिया था। गौरतलब है कोर्ट ने तिवारी को रोहित षेखर नामक युवक का जैविक पिता करार दिया था। उनके डी.एन.ए. टेस्ट के वक्त देष भर के मीडिया का देहरादून में जमावड़ा रहा।

वैसे तो एन. डी. तिवारी और उनकी रंगमिजाजी का चोली दामन का साथ रहा है। सभी जानते हैं कि उन्हें एक सैक्स प्रकरण की वजह से हैदराबाद राजभवन ने रूखसत होना पड़ा था। लेकिन रोहित षेखर के साथ कोर्ट की दहलीज में पहुंचे पितृृत्व विवाद ने इसे सार्वजानिक ही कर दिया।

उस दौरान किसी एक सज्जन ने चुटकी लेते हुए कहा था कि तिवारीजी को तो यौनवर्धक दवाई का ब्रांड एम्बेसडर बना दिया जाना चाहिए। तर्क ये था कि अगर 80 साल की उम्र पार करने के बाद भी एक वीडियो सीडी में एन.डी. महिलाआंे के साथ आपत्तिजनक हालत में पाए गए। तो फिर क्यों न उनके सैक्सी जलबे को यौनवर्धन दवाई की मार्केटिंग में इस्तेमाल किया जाए।

इसके अलावा पूर्ववर्ती भाजपा और कांग्रेस की सरकार में कई मंत्री महिलाओं के साथ संबंधों को लेकर चरचा में रहे। लेकिन सूबे के एक मौजूदा कैबिनेट मंत्री की बिनब्याही युवती के बच्चे के पिता बनने की चरचा ने पुराने अतीत को याद करने पर मजबूर कर दिया। सवाल ये उठता है कि क्या उत्तराखण्ड के सियासतदां देष के सामने मर्दांनगी की मिसाल पेष नहीं कर रहे हैं।


राहुल सिंह षेखावत